________________
१००
प्राचीन हिन्दी जैन कवि
..........
niaNAMRADIAN
त्यों तुम भव जल में परे, विन विवेक धर भेख ॥ जैसे ज्वर के जोर सों, भोजन की रुचि जाय ।
तैसे कुकरम के उदै, धर्म वचन न सुहाइ ॥ जैसे पवन भकोर तें, जल में उठे तरंग ।
त्यों मनसा चंचल भई, परिगह के पर संग ॥ __हे भाई! जिस तरह सर्प के काटने पर मनुष्य कड़वी नीम को प्रेम से चवाता है उसी तरह तुम भी ममता के जहर से व्याकुल हुए विषय में मग्न होकर सुख मानते हो।
जिस तरह छेद वाली नाव पर चढ़ने वाला अंधा आदमी अवश्य बीच धार में डूबता है उसी तरह तुम भी विवेक हीन होकर अनेक भेष रखकर भव समुद्र में पड़े हो।
जिस तरह ज्वर के वेग से भोजन की रुचि चली जाती है उसी तरह खोटे कर्म के उदय से धर्म वचन अच्छे नहीं लगते हैं।
जिस तरह हवा के झोके से जल में तरंग उठती है उसी तरह धन दौलत आदि परिग्रह की प्रीति से मन चंचल हो जाता है।
अध्यात्म बत्तीसी इसमें ३२ दोहे हैं प्रत्येक दोहे में आत्मा के स्वरूप का बड़ी सुन्दर उक्तियों से दिग्दर्शन कराया है। ज्यों सुवाल फल फूल में, दही दूध में धीव,
___ पावक काठ पषाण में, त्यों शरीर में जीव । चेतन पुद्गल यों मिले, ज्यों तिल में खलि तेल,