________________
भैया भगवतीदास उस समय की काव्य प्रगति
उस समय श्रृंगार रस की धारा अवाधित रूप से बह रही थी विलास की मदिरा पिलाकर कवि लोग अपने को कृतकृत्य समझते थे। वे कामिनी के अङ्गों से बुरी तरह उलझे हुए थे उन्होंने कटि, कुच, केशों और कटाक्षों में ही अपनी कल्पना शक्ति को समाप्त कर दिया था। पातिव्रत और ब्रह्मचर्य का मजाक उड़ाने में ही वे अपनी कविता की सफलता समझते थे और " इह पार पतिव्रत ताखै धरो" के गीत गाने में ही उन्हें आनंद आता था।
कोई कवि नवीन दंपति की प्रेम लीलाओं, मान, अपमान और आँख मिचौनी में ही विचरण करता था तो कोई कुशल कवि कुलटाओं के कुटिल कटाक्षों, हावभाव, विलासों और नोक झोक में ही मस्त था।
कोई विलासी कवि, परपति पर आसक्त हुई कामिनियों के संकेत स्थानों के वर्णन में और कोई विरही, विरहिणियों के करुण रुदन, आक्रदन और विलाप में ही अपनी कल्पनाएं समाप्त कर रहा था।
कोई संयोगियों के 'लपटाने रहें पट ताने रहें' के पिष्ट पोषण में ही अपनी कविता की सफलता समझता था।
देवत्व और अमरत्व की भावनाएं समाप्त हो चुकी थीं, मुक्ति और जीवन शक्ति की याचना के स्थान पर कुत्सितता. ने अपना साम्राज्य स्थापित कर रक्खा था।