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प्राचीन हिन्दी जैन कवि
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केई उदास रहे प्रभु कारन, केई कहीं उठि जाँहि कहीं के । . केई प्रणाम करे धड़ मूरति, केई पहार चढ़े चढ़ि छीके । केई कहें आसमान के ऊपरि, केइ कहें प्रभु हेठ जमी के । मेरो धनी नहीं दूर दिशांतर, मोहि में है मोहि सूझत नीके ।।
कोई ईश्वर के पाने के लिये संसार से उदासीन होकर रहते हैं। कोई कहीं इधर उधर जंगलों में घूमते हैं। कोई मूर्ति बनाकर प्रणाम करते हैं और कोई पहाड़ की चोटियों पर चढ़ते हैं। कोई कहते हैं कि ईश्वर आकाश के ऊपर है और कोई कहते हैं कि पाताल लोक में है किन्तु मेरा स्वामी तो कहीं दूर देश विदेश में नहीं है वह तो मेरे अन्दर ही है मुझे वह अच्छी . तरह से दिखता है। मन की दौड़
मन की क्या ही विचित्र दौड़ है वह किस तरह से छलांगें मारता है इसके वर्णन में कविवर ने बड़ी सफलता प्राप्त की है। छिन में प्रवीण छिन ही में माया सों मलीन,
छिनक में दीन छिन मांहि जैसो शक है। लिए दौर धूप छिन छिन में अनन्त रूप,
कोलाहल ठानत मथानी को सो तक्र है ॥ नट कोसो थार कींधो हार है रहाँट कैसो,
नदी को सो भौंर कि कुम्हार कैसो चक्र है। ऐसो मन भ्रामक सुथिर आज कैसे होय, 'आदि ही को चंचल अनादि ही को वक्र है।