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बन्ध है।
कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रसूरि लिखते हैं-'जीव कषाय के कारण कर्म योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, यह बन्ध है, वह जीव की अस्वतन्त्रता का कारण
आचार्य पूज्यपाद के अनुसार जीव और कर्म के इस संश्लेष को दूध और जल के उदाहरण से समझा जा सकता है।" योग और कषाय-बन्ध के हेतु
दूसरे रूप में-"योग प्रकृति-बन्ध और प्रदेश-बन्ध का हेतु है तथा कषाय स्थितिबन्ध और अनुभाग-बन्ध का हेतु है । इस प्रकार योग और कषाय-ये दो बन्ध के हेतु बनते हैं।
तीसरी दृष्टि से-"मिथ्यात्व, अविरति, कपाय और योग-ये बन्ध के हेतु हैं।" इन चार बन्ध-हेतुओं से सत्तावन भेद हो जाते हैं।
धर्मशास्त्र-आगम में प्रमाद को भी बन्ध-हेतु कहा है। श्री उमास्वाति ने" पांच बन्ध-हेतु माने हैं,-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कपाय और योग ।
इस प्रकार जैन-दर्शन में बन्ध-हेतुओं की संख्या पांच आस्रवों के रूप में मान्य है।
समन्वय-कर्म-बन्ध के हेतुओं की दृष्टियों का समन्वय इस प्रकार किया गया है"प्रमाद एक प्रकार का असंयम ही है । इसलिये वह अविरति या कषाय में आ जाता है । सूक्ष्मता से देखने से मिथ्यात्व और अविरति--ये दोनों कषाय के स्वरूप से भिन्न नहीं। इसलिये कषाय और योग-ये दो ही बन्ध के हेतु माने गए हैं।" कर्म-बन्ध के हेतु
पांच मानव-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कपाय और योग बन्ध-हेतु हैं। जैन धर्म-शास्त्रों-आगमों में कर्मबन्ध के दो हेतु कहे गए हैं-१. राग और २. द्वेष । राग और द्वेष कर्म के बीज हैं।" जो भी पाप कर्म हैं, वे राग और द्वेष से अजित होते हैं।
टीकाकार ने राग से माया और लोभ को ग्रहण किया है, और देष से क्रोध और मान को ग्रहण किया है।"
एक बार गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से पूछा- भगवन् ! जीव कर्म प्रकृतियों का बन्ध कैसे करते हैं ?" भगवान् ने उत्तर दिया--"गौतम! जीव दो स्थानों से कर्मों का बन्ध करते हैं--एक राग से और दूसरे द्वेष से । राग दो प्रकार का है-माया और लोभ । देष भी दो प्रकार का है--क्रोध और मान ।"
क्रोध, मान, माया और लोभ-इन चारों का संग्राहक शब्द कषाय है। इस प्रकार एक कषाय ही बन्ध का हेतु होता है। बसक ३ (दिसम्बर; ८८)