Book Title: Jain Karm Siddhanta aur Manovigyan ki Bhasha
Author(s): Ratnalal Jain
Publisher: Ratnalal Jain

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Page 11
________________ ३. मोहनीय-यह कर्म आत्मा की सम्यक श्रद्धा को रोकता है। ४. अन्तराय-यह कर्म अनन्त वीर्य को प्रकट नहीं होने देता। ५.वेदनीय-यह कर्म अव्याबाध सुख को रोकता है । ६. आयुष्य-यह कर्म अटल-अवगाहन-- शाश्वत स्थिरता को नहीं होने देता। ७. नाम-यह कर्म अरूप अवस्था को नहीं होने देता। ८. गोत्र-यह कर्म अगुरुलघु भाव को रोकता है । घाति और अधाति कर्म . धाति कर्म-जो कर्म आत्मा के साथ बन्द कर उसके स्वाभाविक गुणों की घात करते हैं । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय घाति कर्म हैं।' . अघाति कम-जो आत्मा के प्रधान गुणों को हानि नहीं पहुंचाते जैसे-वेदनीय, आयुष्य, नाम गोत्र ये अघाति कर्म हैं । वेदनीय कर्म दो प्रकार का होता है-सातावेदनीय और असातावेदनीय । आयुष्य कम चार प्रकार का है-१. नरकायुष्य २. तिर्यञ्चायुष्य ३. मनुष्यायुष्य ४. देवायुष्य । नाम कर्म दो प्रकार का होता है-१. शुभ और २. अशुभ । गोत्र कर्म के दो भेद हैं- १. उच्च गोत्र और २. नीच गोत्र ।" विपाक-जाति, आयु और भोग (योगदर्शन) जब तक क्लेश रूप जड़ विद्यमान रहती है, तब तक कर्माशय का विपाक अर्थात् . फल-जाति, आयु और भोग होता है। जाति-मनुष्य, पशु, देव आदि जाति कहलाती है । आयु-बहुत काल तक जीवात्मा का एक शरीर के साथ सम्बन्ध रहना आयु पद का अर्थ है। भोग-इन्द्रियों के विषय-रूप-रसादि भोग शब्दार्थ हैं । कुलेश जड़ है । उन जड़ों से कर्माशय का वृक्ष बढ़ता है । उस वृक्ष में जाति, आयु और भोग-तीन प्रकार के फल लगते हैं। कर्माशय वृक्ष उसी समय तक फलता है, जब तक अविद्यादि क्लेश रूपी उसकी जड़ विद्यमान रहती है। - योगवर्शन में जाति, आयु और भोग भी जैन कर्मवाद के वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र के समान सुख और दुःख फल देने वाले हैं। बन्धका स्वरूप जीव और कर्म के संश्लेष को बन्ध कहते हैं। जीव अपनी वृत्तियों से कर्म-योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है । इन ग्रहण किए हुए कर्म-पुद्गल और जीव-प्रदेशों का संयोग ही बन्ध कहलाता है।" श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती लिखते हैं....... जिस तम्य परिणाम से कर्म बन्धता है, वह भाव-बन्ध है, तथा कर्म और बात्मा के प्रदेशों का प्रवेश-एक दूसरे में मिल जाना-एक क्षेत्रावगाही हो जाना द्रव्य तुलसी प्रहा

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