Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 3
________________ हितं मनोहारि च दुर्लभ वचः । बारहवाँ भाग। अंक ११-१२ जैनहितैषी। कार्तिक मार्ग०२४४२ नवम्बर, दिस० १९१६. PRASTRasranamanarnamamaRRER सारे ही संघ सनेहके सूतसौं, संयुत हों, न रहै कोउ द्वेषी। ? प्रेमसौं पालैं स्वधर्म सभी, रहैं सत्यके साँचे स्वरूप-गवेषी ॥ ॐ बैर विरोध न हो मतभेदतें, हों सबके सब बन्धु शुभैषी ।। * भारतके हितको समझें सब, चाहत है यह जैनहितैषी ॥ Roupasubversu URV भद्रकाहु-संहिता। (ग्रन्थ-परीक्षा-लेखमालाका चतुर्थ लेख ।) मश्या . (२) [ले. श्रीयुत बाबू जुगलकिशोरजी मुख्तार ।] जिन लोगोंका अभीतक यह खयाल रहा है के मध्यवर्ती किसी समयमें हुआ है। अस्तु । कि यह ग्रंथ (भद्रबाहुसंहिता) भद्रबाहु श्रुत- इस ग्रंथके साहित्यकी जाँचसे मालूम होता है केवलीका बनाया हुआ है-आजसे लगभग २३०० कि जिस किसी व्यक्तिने इस ग्रंथकी रचना की वर्ष पहलेका बना हुआ है-उन्हें पिछला लेख है वह निःसन्देह अपने घरकी अकल बहुत कम पढ़नेसे मालूम होगया होगा कि यह ग्रंथ वास्त- रखता था और उसे ग्रंथका सम्पादन करना वमें भद्रबाहु श्रुतकेवलीका बनाया हुआ नहीं है, नहीं आता था। साथ ही, जाली ग्रंथ बनानेके न उनके किसी शिष्य-प्रशिष्यकी रचना है और कारण उसका आशय भी शुद्ध नहीं था । यही न विक्रमसंवत् १६५७ से पहलेहीका बनाहुआ वजह है कि उससे, ग्रंथकी स्वतंत्र रचनाका है। बल्कि इसका अवतार विक्रमकी १७ वीं होना तो दूर रहा, इधर उधरसे उठाकर रक्खे शताब्दिके उत्तरार्धमें-संवत् १६५७ और १६६५ हुए प्रकरणोंका संकलन भी ठीक तौरसे नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 ... 104