Book Title: Jain Dharma ke Sadhna Sutra
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 182
________________ हाथ में होनी चाहिए। व्रत का मतलब है मन की लगाम को अपने हाथ में लेना, मन की डोर अपने हाथ में रखना । आत्म-निरीक्षण व्रत होने पर भी मन की चंचलता विद्यमान है | चंचलता एकदम समाप्त नहीं हुई है । छत में भी कभी-कभी कोई दरार या छेद रह जाता है । किवाड़ में भी सुराख रह जाता है, दरवाजे ढीले रह जाते हैं । इसके लिए क्या करना चाहिए ? उपाय बताया गया- प्रतिक्रमण करो । प्रतिक्रमण का पहला कार्य है आत्मनिरीक्षण | अपने आपको देखना शुरू करें । बड़ा कठिन काम है अपने आपको देखना । हमारी इन्द्रियों की बनावट ही ऐसी है कि इनके द्वारा हम बाह्य जगत से संपर्क स्थापित करते हैं । वहां दूसरा ही दूसरा नजर आता है, अपने नाम का कोई तत्त्व वहां नहीं है । आंख का काम है देखना । हम दूसरों को देखेंगे | कान का काम है सुनना । हम दूसरों की बात सुनेंगे । हमारी प्रकृति ही ऐसी बन गई है कि इन्द्रियां केवल बाहर ही बाहर केन्द्रित रहती हैं, स्व-दर्शन बिल्कुल विस्मृति में चला जाता है । आत्मनिरीक्षण का अर्थ है अपने आपको देखना । आंख खुली हो या बन्द, उससे अपने आपको देखें। अपने आचरण को देखें, अपने कर्तृत्व को देखें, क्रियमाण को देखें और करिष्यमाण को भी देखें । धार्मिक का लक्षण आत्मनिरीक्षण प्रतिक्रमण का पहला चरण है । जो आत्मनिरीक्षण करना नहीं जानता, वह शायद धार्मिक नहीं हो सकता और आध्यात्मिक तो हो ही नहीं सकता । धार्मिक होने का सबसे बड़ा सूत्र है अपने आपको देखना । किसी ने झगड़ा किया, गाली दी । उससे पूछा जाए कि ऐसा क्यों किया ? वह यही कहेगा कि मैं क्या करूं? उसने मुझे गाली दी तो मैंने भी दी । यह कभी नहीं कहेगा कि मैंने दी। सदा यही कहेगा कि पहले उसने दी, इसलिए मैंने भी दी । व्यक्ति हर बात में दूसरे को सामने रखता है । किसी से पूछा जाए कि तुमने ऐसा क्यों किया ? यही उत्तर मिलता है- मुझे ऐसा करना १६८ जैन धर्म के साधना सूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |

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