Book Title: Jain Dharma ke Sadhna Sutra
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 215
________________ का अहंकार भी होता है । पर क्या हम सही अर्थ में स्वतंत्र हैं ? स्वतंत्र नहीं हैं, यह नहीं कहा जा सकता । यदि व्यक्ति स्वतंत्र नहीं है तो जीवन की व्याख्या करने की भी कोई आवश्यकता नहीं है । वह कोरी कठपुतली बन जाएगा। किन्तु आदमी कोरी कठपुतली नहीं है । वह स्वतंत्र भी है । संचालक कौन है ? जीवन में दोनों प्रकार के व्यवहार मिलते हैं । व्यक्ति कहीं कहीं अपनी उदात्त चेतना के द्वारा ऐसा स्वतंत्र व्यवहार करता है कि कोई आड़े नहीं आता । कहीं-कहीं वह कठपुतली जैसा व्यवहार करता है, जैसे कोई दूसरा उसे नचा रहा है । प्रश्न होता है- उसे कौन नचा रहा है ? कौन चला रहा है ? ईश्वरवादी मानते हैं- ईश्वर की इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता । प्रत्येक मनुष्य के जीवन को ईश्वर चला रहा है, किन्तु कर्मवाद को मानने वाला ऐसा नहीं मानता | क्या कर्मवाद चला रहा है ? ऐसा मानना भी ठीक नहीं है। अगर कर्मवाद चलाए तो इंश्वरवाद क्यों न चलाए ? कर्मवाद भी व्यक्ति को नहीं चलाता | चलाने वाली हमारी अपनी आत्मा है, हमारी अपनी चेतना है । बीच-बीच में अनेक बाधाएं अवश्य आती हैं, इसलिए आदमी एक जैसा नहीं चल पाता। व्याख्या का सूत्र प्रश्न होता है- आज तक कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं हुआ, जिसका जीवन एक जैसा रहा हो ? जीवन में उतार-चढ़ाव न आए हों । इसका कारण क्या है ? इसकी व्याख्या का सूत्र क्या है ? इसकी व्याख्या का सूत्र वही है- कर्मशरीर | इस अन्धकारमय जगत् में पुण्य और पाप का भंडार है । पाप का भी भण्डार भरा है, पुण्य का भी भंडार भरा है । जिसको मौका मिलता है, वह बाहर आ जाता है और व्यक्ति को प्रभावित कर देता है | पाप सामने आता है तो अशुभ सामने आ जाता है, जीवन में अशुभ आचरण और व्यवहार होने लगता है । पुण्य सामने आता है तो जीवन में शुभ आचरण और व्यवहार होने लग जाता है | शुभ और अशुभ, पुण्य और पाप- दोनों का भंडार हमारे वह ज्ञाता होना चाहता है २०१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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