Book Title: Jain Dharma ke Sadhna Sutra
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 213
________________ वैसे ही बंध भी बाहरी उद्दीपनों या काल मर्यादा को प्राप्त कर चेतन को प्रभावित करता है । फ्रायड का अभिमत फ्रायड ने माना- अचेतन में गंदगी भरी है, दमित वासनाएं भरी हुई हैं, बुराइयां ही बुराइयां हैं। यूंग का मानना था - अचेतन में केवल बुराइयां ही नहीं हैं, उसमें अच्छाइयों के संस्कार भी हैं । जैन दर्शन का अभिमत है-बंध में पुण्य भी है, पाप भी है। पुण्य और पाप - दोनों के परमाणु संचित हैं । समय-समय पर ये दोनों प्रकट होते रहते हैं । कभी पुण्य के स्कंध बाहर आ जाते हैं, कभी पाप के स्कंध बाहर आ जाते हैं । इस बाहर आने की अवस्था को कहा गया- विपाक । उनकी फल देने की शक्ति को कहा गया- अनुभाग । उनकी काल - मर्यादा को कहा गया- स्थिति और उनके स्वभाव को कहा गया - प्रकृति । जो भी परमाणु भीतर जाते हैं, उनमें एक स्वभाव पड़ जाता है । वे परमाणु स्वभाव के अनुसार अपना अपना काम करते हैं । वे कालमर्यादा से बंधे हुए हैं। उन्हें एक निर्धारित काल तक भंडार में रहना होता है । जब काल - मर्यादा पूर्ण होती है तब वे परिपक्व होकर बाहर आते हैं, व्यक्ति को प्रभावित करते हैं । उनका फलानुभव होता है, व्यक्ति को उनका फल मिलता है । यह है अन्तर्जगत् का लेखा-जोखा | I यूंग का दृष्टिकोण फ्रायड ने बहिर्मुखता के आधार पर चित्त का अध्ययन किया, बाह्य जगत् में होने वाले मुख्य मानवीय व्यवहार का अध्ययन किया । यूंग ने आन्तरिक जगत् का अध्ययन किया । उनके जो साइकोलॉजिकल प्वाइंट्स हैं, उनमें अन्तर्मुखी और बाह्यमुखी - दोनों व्यक्तित्व मिलते हैं । आन्तरिक अध्ययन का विषय है - व्यक्ति में क्या-क्या अभिव्यक्तियां होती हैं, व्यक्ति कैसे कैसे सोचता है और चलता है ? बाहरी जगत् में उसका मानवीय व्यवहार कैसा होता है ? हमारा अन्तर् का जगत्, अचेतन का जगत् बहुत बड़ा है । वह अंधकारमय और अज्ञात है । अचेतन को समझने के लिए कर्म शरीर स्वतंत्र भी बंधा हुआ है Jain Education International For Private & Personal Use Only १९९ www.jainelibrary.org

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