Book Title: Jain Dharma ke Sadhna Sutra
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 229
________________ स्थितियां हैं। पहली सिथति है- अकुशल का निरोध, मन अकुशल न हो । ऐसी साधना की जाए, जिससे मन में कोई अकुशल-अशुभ विचार न आए। दूसरी स्थिति है- कुशल का संकल्प, कुशल मन का प्रवर्तन । मन पवित्र ही पवित्र रहे । तीसरी स्थिति है- कुशल मन का निरोध । कोई विचार नहीं, चिन्तन नहीं, निर्विचार अवस्था, अमन अवस्था । जब शरीर की सिद्धि, वाणी की सिद्धि और मन की सिद्धि घटित होती है तब संवर की सिद्धि होती है । अनुप्रेक्षा संवर की सिद्धि का एक उपाय है- अनुप्रेक्षा । प्रेक्षा के साथ जुड़ा हुआ है अनुप्रेक्षा का तत्त्व । यह संवर की साधना का बहुत सुन्दर उपाय है । हम पदार्थ के साथ जीते हैं, पदार्थ के साथ रहते हैं । हम परिवार के बीच जीते हैं, रहते हैं, मकान, कपड़े, खाद्य-सामग्री आदि का हम उपभोग करते हैं, उनसे हमारा एक लगाव होता है । वह लगाव दुःख का कारण बनता है । पदार्थ दुःख नहीं देता । दुःख देता है लगाव । आज एक घटना घटती है । कालान्तर में वह सामान्य बन जाती है, पर उसका शोक मन में बैठ जाता है । घटना से जो आघात लगा है, वह आघात रह जाता है । आघात क्यों लगता है ? आघात लगता है लगाव के कारण । यदि उस व्यक्ति या पदार्थ के साथ लगाव न हो तो कोई आघात नहीं लगेगा । उस आघात से, लगाव से बचने की साधना का नाम है अनुप्रेक्षा । हम जैसे-जैसे अनुप्रेक्षा का अभ्यास करेंगे, वैसे-वैसे संवर की चेतना जागृत होती चली जाएगी । अनित्य अनुप्रेक्षा __ आश्रव का मतलब है- आत्मा की वह परिणाम धारा, जो कर्मों को आकर्षित करती है । संवर का मतलब है- आत्मा की वह परिणाम धारा, जो कर्म के आगमन को एकदम रोक दे, दरवाजा बंद कर दे । हम केवल उच्चारण मात्र से दरवाजा बंद कैसे कर सकते हैं ? एक व्यक्ति कहता है-- मुझे शोक करने का त्याग है, दुःख करने का त्याग है । क्या इस संकल्प के क्या दरवाजा बंद है ? २१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248