Book Title: Jain Dharma ke Sadhna Sutra
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 244
________________ एक सार्वभौम नियम है- अनंतकाल तक कोई भी सांसारिक जीव एक अवस्था में रह नहीं सकता । जीव मनुष्य बनता है तो एक निश्चित आयुसीमा से बंधा होता है | पशु, पक्षी या देव बनता है तो एक निश्चित आयुसीमा से बंधा होता है । संसार में पुनर्जन्म करने वाले जितने जीव हैं, वे अपनी निश्चित आयु-सीमा के साथ चलते हैं । वे जीते हैं और जीवन की मर्यादा समाप्त होने पर चले जाते हैं । निरवधि वाला स्थान एक ही है, और वह है अपने आपमें होना । यह लोक सूक्ष्म जीवों से कैसे भरा पड़ा है ? इस संसार में जीवों की क्या स्थिति है ? शुद्ध आत्माओं की क्या स्थिति है ? यदि हम इन सब बातों को जान लें तो आत्मा या परमात्मा के संदर्भ में होने वाले बहुत सारे संदेह समाप्त हो जाएं । वर्तमान को देखें महायान में इस भावना पर बल दिया गया न त्वहं कामये राज्यं, न स्वर्ग न पुनर्भवम् । कामये दुःखतप्तानां, प्राणिनां अर्तिनाशनम् ।। मुझे न राज्य चाहिए, न स्वर्ग चाहिए । मैं चाहता हूं- जो प्राणी दुःख से पीड़ित हैं, उनका दुःख मिट जाए । इसके सिवाय मुझे और कुछ नहीं चाहिए। यह भावना उदात्त है । पर नियम क्या है ? मरने के बाद कौन कहां जाएगा, इस नियम का ज्ञान किसे है ? हम अनंत जन्म-श्रृंखला की क्या बात करें ? हमें अगले जन्म का भी पता नहीं है । हम यह मानकर चलें- जगत् का प्रत्येक प्राणी प्राकृतिक नियमों से बंधा हुआ है । प्राकृतिक, जागतिक नियमों (Universal Law) से कोई भी मुक्त नहीं है । हम वर्तमान में अच्छा ज्ञान करें, अच्छा आचरण और व्यवहार करें, हमारे हाथ में इतना ही है । यदि हमारा वर्तमान अच्छा है तो भविष्य अच्छा होगा । मोक्ष आखिर है कहां? वह कहीं बाहर नहीं है । आत्मा से भिन्न नहीं है परमात्मा । आत्मा ही परमात्मा में परिणत हो जाता है, बदल जाता है । परमात्मा का बीज है आत्मा । जब २३० जैन धर्म के साधना-सूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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