Book Title: Jain Dharma ke Sadhna Sutra
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 222
________________ प्रश्न आचार की अवधारणा का हमारे वर्तमान आचरण और व्यवहार के पीछे एक शृंखला है । उसे समझने पर ही आचार का निर्धारण संभव बन पाएगा । आचारशास्त्र के निर्धारण में अतीत और वर्तमान- दोनों की अनुभूतियों को एक साथ संयोजित किया जाए तभी आचार की सम्यक् व्याख्या हो सकती है । हमारा आचार कैसा होना चाहिए, उसकी अवधारणा केवल वर्तमान के आधार पर नहीं हो सकती । वर्तमान में व्यक्ति को आत्म-प्रशंसा और पर-निंदा करना अच्छा लगता है, किन्तु उसका परिणाम क्या होगा? इस पर यदि विचार करें तो न आत्म-प्रशंसा अच्छी लगेगी, न पर-निन्दा अच्छी लगेगी । व्यक्ति सोचेगा, जो भी करता हूं, उसका अर्थ है-बीज बोता हूं | उसकी जो फसल आएगी, उसे काटना होगा । इस बात को जो बराबर ध्यान में रखता है, उस आदमी की स्थिति बदल जाती है। असातवेदनीय का परिणाम कहा गया-नव तत्त्व का जो ज्ञान है, वह सम्यक् दर्शन है । प्रश्न है-ऐसा क्यों कहा गया ? जो नव तत्त्व को जान लेता है, उसका दर्शन सम्यक् बन जाता है, यह किस दृष्टि से कहा गया ? जब व्यक्ति आश्रव और बंध की स्थिति को जान लेता है, पुण्य और पाप की स्थिति को जान लेता है, तब उसका दृष्टिकोण अपने आप समीचीन बन जाता है । वह मिथ्या आचरण नहीं कर सकता । मिथ्या दृष्टिकोण इसलिए है कि व्यक्ति आश्रव, बंध, पुण्य और पाप की मर्यादा ठीक से नहीं जानता । एक आदमी ने कहा-मेरे पास मकान है, धन है, पुत्र है सुशील पत्नी है, सब कुछ है, फिर भी मैं दुःखी हूं । कभी-कभी मन में आत्महत्या का विचार भी उठ जाता है । इसकी क्या व्याख्या करेंगे? इसका कारण है-सब कुछ है पर सात वेदनीय कर्म का उदय नहीं है । इसका अर्थ है-असातवेदनीय का प्रबल उदय है, सुखद और अनुकूल संवेदना का उदय नहीं है, विपाक नहीं है । एक वैज्ञानिक आत्महत्या कर लेता है, एक धनपति सेठ आत्महत्या कर लेता है क्योंकि उसका मन दुःखी होता है । व्यक्ति दुःखी क्यों होता है ? हम इस पर भी विचार करें। उमास्वाति २०८ जैन धर्म के साधना-सूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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