Book Title: Jain Dharma ke Sadhna Sutra
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 214
________________ को समझना जरूरी है । स्थूल शरीर से सूक्ष्म है- तैजस शरीर । उससे भी सूक्ष्म है - कर्म-शरीर । यह कर्म-शरीर है सूक्ष्मतर । यह हमारा अचेतन का स्तर है । बाहर से जो भी लिया जाता है, वह सारा कर्म- शरीर में चला जाता है । ग्रहण करने का कारण है- कषाय-क्रोध, मान, माया और लोभ | इनकी प्रेरणा से प्रेरित होकर जीव कर्म के पुद्गलों का ग्रहण करता है । वे कर्म के परमाणु भीतर जाकर भंडार बन जाते हैं । फिर वे पकते हैं और पकने के बाद फल देते हैं । मनोविज्ञान: चार क्रियाएं मनोल्ज्ञिान में चार क्रियाएं मानी गईं- संवेदन, चिंतन, भावना और अन्तर्दृष्टि । बाह्य जगत् में चार क्रियाएं हो रही हैं। प्रश्न है - इनका स्रोत कहां है ? स्रोत का पता नहीं चलता है तो बड़ा भ्रम पैदा हो जाता है । हम केवल शरीर को ही न देखें, वाणी और संवेदन को ही न देखें, हम उसे गहराई से देखें, जहां से चिन्तन, संवेदनाएं और भावनाएं आ रही हैं। वह है कर्मशरीर - अचेतन जगत् । हम कर्म-शरीर की प्रक्रिया को समझें, उसका अध्ययन करें । कर्म-शरीर क्या है ? उसे पोषण कौन दे रहा है ? वह कैसे हमारे व्यक्तित्व को प्रभावित कर रहा है ? इस प्रक्रिया को समझने के लिए पुण्य, पाप, आश्रव और बंध- इन चार तत्त्वों को समझना होगा । जब तक यह तत्त्व - चतुष्क समझ में नहीं आएगा तब तक न उलझनों का अन्त होगा, न मानसिक समस्याओं और दुःखों का अन्त होगा । प्रश्न स्वतंत्रता का हम अपने रूप में नहीं रह सकते क्योंकि हमारा स्रोत खुला हुआ है 1 जब तक कर्म - शरीर की यह क्रिया बंद नहीं होगी, अचेतन प्रकंपित नहीं होगा तब तक यह चक्र निरन्तर चलता रहेगा | आश्रव होता है और वह बहुत सामग्री भीतर भेज देता है । जो शरीर भरेगा, वह बाहर आएगा और जो बाहर आएगा, वह प्रभावित करेगा । इसे आधार पर हमारे चरित्र और व्यवहार की व्याख्या हो सकती है | प्रत्येक व्यक्ति सोचता है - मैं स्वतंत्र हूं | स्वतंत्रता जैन धर्म के साधना - सूत्र २०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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