Book Title: Jain Dharma Darshan Part 1
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 13
________________ AAAAAHARRAININOORNHI 000000MAHARASHTRA HARowwwwwwwkakakarwasnRIA वास्तविक अर्थ नहीं हैं। सच्चा धर्म न हि होता है, न जैन, न बौद्ध, न ईसाई न इस्लाम। सच्चे धर्म की कोई संज्ञा नहीं होती। ये सब नाम आरोपित हैं। हमारा सच्चा अर्थ तो वही है जो हमारा निज स्वभाव हैं। इसीलिए भगवान महावीर ने "वत्थु सहावो धम्मों" के रूप में धर्म को परिभाषित किया हैं। प्रत्येक के लिए जो उसका निज-गुण है स्व-स्वभाव है वही धर्म है। काम, क्रोध, अहंकार, लोभ आदि विकारों से विमुक्ति होना ही शुद्ध धर्म है। स्व-स्वभाव से भिन्न जो भी होगा, वह उसके लिए धर्म नहीं अधर्म ही होगा। गीता में कहा गया है - "स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावह" परधर्म अर्थात् दुसरे के स्वभाव को इसलिए भयावह कहा गया क्योंकि वह हमारे लिए स्वभाव न होकर विभाव होगा और जो विभाव है वह धर्म न होकर अधर्म ही होगा। यह सत्य है कि आज विश्व में अनेक धर्म प्रचलित है। किन्तु यदि गंभीरतापूर्वक विचार करे तो इन विविध धर्मों का मूलभूत लक्ष्य है, मनुष्य को एक अच्छे मनुष्य के रूप में विकसित कर उसे परमात्मा तत्त्व की ओर ले जाना। क्या शीलवान, समाधिवान, प्रज्ञावान होना केवल बौद्धों का ही धर्म है? क्या वीतराग, वीतद्वेष, वीतमोह होना केवल जैनियों का ही धर्म हैं? क्या स्थितप्रज्ञ, अनासक्त, जीवमुक्त होना केवल हिन्दुओं का ही धर्म हैं? क्या प्रेम, करुणा से ओत-प्रोत होकर जनसेवा करना केवल ईसाईयों का ही धर्म हैं? क्या जातपांत के भेदभाव से मुक्त रहकर सामाजिक समता का जीवन जीना केवल मुसलमानों का ही धर्म हैं? आखिर धर्म क्या है? इसलिए पहले धर्म की शुद्धता को समझे और धारण करें। जिनों (जिनेश्वर) ने खुद अपने जीवन मे जिस धर्म को जिया और फिर दुनिया को साधना का मार्ग बतलाया, वह साधकों के लिए धर्म हो गया। जिनों (तीर्थंकर) ने इस धर्म को प्ररूपणा की, अतः इसका नाम हो गया जिन धर्म या जैन धर्म । यह सत्य है कि जैन धर्म' इस शब्द का प्रयोग वेदों में, त्रिपिटकों में और आगमों में देखने को नहीं मिलता, जिसके कारण भी कुछ लोग जैन धर्म को प्राचीन (Ancient) न मानकर अर्वाचीन (Modern) मानते हैं। प्राचीन साहित्य में जैन धर्म का नामोल्लेख न मिलने का कारण यह था कि उस समय तक इसे जैन धर्म के नाम से जाना ही नहीं जाता था। दशवैकालिक, उत्तराध्ययन और सूत्रकृतांग आदि आगम साहित्य में जिन शासन, जिनधर्म, जिन प्रवचन आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। भगवान महावीर के पश्चात 'जैन धर्म' इस नाम का प्रयोग सर्वप्रथम जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने अपने वश्यक भाष्य में किया। उसके बाद उत्तरवती साहित्य में 'जन' शब्द व्यापक रूप में प्रचलित हुआ। जैन शब्द का मूल उदगम जिन है। जिन शब्द 'जिं जये' धातु से निष्पन्न है। जिसका शाब्दिक अर्थ है - जीतने वाला। जिन को परिभाषित करते हुए लिखा गया राग-द्वेषादि दोषान् कर्मशत्रु जयतीति जिनः, तस्यानुयायिनों जैनाः। अर्थात् राग-द्वेष आदि दोषों और कर्म शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने वाले जिन और उनके अनुयायी जैन कहलाते हैं। जिस प्रकार विष्णु को उपास्य मानने वाले 'वैष्णव' और शिव के उपासक 'शैव' कहलाते हैं, उसी प्रकार जिन के उपासक 'जैन' कहलाते हैं। विष्णु, शिव की भांति जिन किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं हैं, वे सभी महापुरुष जिन्होंने राग-द्वेष को जीत लिया है, जितेन्द्रिय बन गये हैं, वीतराग हो चुके हैं, 'जिन' कहलाते है। और वे जिनेश्वर, वीतराग, परमात्मा, सर्वज्ञ, तीर्थंकर, निपँथ, अर्हत् आदि नामों से जाने जाते है। जिनेश्वर :- जिन अर्थात् राग-द्वेष को जीतने वाले एवं ऐसे जिनके ईश्वर-स्वामी, वे जिनेश्वर कहलाते है। अपने असली शत्रु राग-द्वेष ही हैं एवं नकली शत्रु इनके कारण ही पैदा होते हैं। राग अर्थात् मन-पसंद वस्तु पर KROACAXXXXXXXXX R elcanohnternational 0 . 0 X XXXXXXX For Prvale & Personal use only www.jainelibrary.org

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