Book Title: Jain Dharma Darshan Part 1
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 90
________________ यही बात कर्मबंध के अनुसार संसारी जीव जब राग द्वेष युक्त मन, वचन, काया की प्रवृत्ति करता है तब जीव में एक स्पन्दन होता है, उससे जीव सूक्ष्म पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण करता है और उनके द्वारा नाना प्रकार के आभयन्तर संस्कारों को उत्पन्न करता है। आत्मा में चुम्बक की तरह अन्य पुद्गल परमाणुओं को अपनी ओर आकर्षित करने की शक्ति है और उन परमाणुओं में लोहे की तरह आकर्षित होने की शक्ति हैं। यद्यपि वे पुद्गल परमाणु भौतिक है - अजीव है, तथापि जीव की राग - द्वेषात्मक, मानसिक, वाचिक एवं शारीरिक क्रिया के द्वारा आकृष्ट होकर वे आत्मा के साथ ऐसे घुल मिल जाते हैं, जैसे दूध और पानी, अग्नि और लोहपिण्ड की भांति परस्पर एकमेक हो जाते हैं। __ अंगीठी के जलते अंगारे पर एक लोहे का गोला रखा जाय, देखते ही देखते थोड़ी देर में वह लाल बन जाएगा। अग्नि की ज्वाला में तपकर लाल बन गया। गोला लोहे का है, देखने में बिल्कुल काला है, परंतु अग्नि के संयोग से लाल बन गया, सोचने की बात यह है कि लोहे के मजबूत गोले में जहां सूई प्रवेश नहीं कर सकती, पानी भी प्रवेश नहीं कर सकता, तनिक भी जगह नहीं है, फिर भी अग्नि कैसे प्रवेश कर गई? अग्नि गोले के आर-पार चली गई, पूरे गोले का काला रंग बदल कर लाल हो गया। मानो अग्नि और गोला एक रस हो गया है। वैसे ही आत्मा के कर्मण वर्गणाओं का जब प्रवेश होता है तब वे तद्रूप तन्मय बन जाती है और आत्मा व कर्म में भेद नहीं दिखाई देता है। एक ऐसा रसात्मक मिश्रण हो जाता है कि आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में दिखाई नहीं देती। कर्म संयोग से मलिन, कर्ममय दिखाई देती है। कर्म बंध की पद्धति कर्मशास्त्र के अनुसार बंध की चार पद्धतियाँ इस प्रकार है - 1. स्पृष्ट :- जिस प्रकार किसी के पास शक्तिशाली चुम्बक रखा है पास ही सूईयाँ रखी है। जब वह चुम्बक को सूइयों के पास रख देगा तो वह चुम्बक सूइयों को अपनी ओर खींचकर एकत्र कर लेगा। इसी प्रकार कषाय युक्त आत्मा की प्रवृत्ति से कर्म पुद्गलों का आत्म प्रदेशों के निकट या एक स्थान पर इकट्ठा हो जाना कर्म की स्पृष्ट अवस्था है। स्पृष्ट कर्म मिच्छामि दुक्कडं आदि संकमाण पश्चाताप रूप साधारण प्रायश्चित से ही छूट जाते हैं। प्रसन्नचंद्र राजर्षि का उदाहरण प्रसिद्ध है। दृष्टांत - श्री प्रसन्नचंद्र राजर्षि राजपाठ छोड़कर मुनि अवस्था को प्राप्त कर तप-ध्यान में लीन थे। तभी महाराजा श्रेणिक के दुर्मुख नामक दुत ने राजर्षि को देखकर कहा कि आपके राज्य पर शत्रु ने आक्रमण किया है। यह सुनकर ध्यानस्थ राजर्षि का चित्त आर्त्त-रौद्र ध्यान में चला गया और वे शत्रु से मानसिक युद्ध करने लगे और स्पृष्ट कर्मबंध बाँधे|जब उनका हाथ मुकुट फेंकने के लिए सिर पर गया तो उन्हें अपनी मुनि स्थिति का भान हआ और उन्होंने अन्तःकरण से प्रायश्चित कर जो स्पृष्ट कर्म बांधा था, उसकी निर्जरा कर वे केवलज्ञानी बनें। 2. बद्ध :- चुम्बक पर लगी सूइयों को एक धागे में पिरोकर रख दे तो फिर वे इधर उधर नहीं बिखरेगी। जब तक अधिक प्रयत्न नहीं किया जाएगा, वे धागे में बँधी रहेगी। इसी प्रकार कीलो का स्पृष्ट बंधन आत्मा के साथ दृढतापूर्वक संलग्न कर्मों की यह स्थिति बद्ध प्रसन्नवेन्द्रराजधिरा ध्यानावस्था मन ही मनाशत्रु सयुदकर रहे हैं पश्चात्ताप करके कमाँ का संक्रमण किया। 484 SASARASH artiuidatiotinternationality Vatatharsohandsetmly wwharmentorarysms

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