Book Title: Jain Dharma Darshan Part 1
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 112
________________ अग्नि में मृगावती जी ने अपने घनघोर घाति कर्मों को जलाकर उसी रात्रि में केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। उसी रात्रि में एक सर्प चन्दनबालाजी की तरफ जा रहा था, तब उन्होंने चन्दनबालाजी का हाथ एक तरफ कर दिया, जिससे उनकी नींद खुल गई और मृगावती जी से इसका कारण पूछा। मृगावती जी ने कहा - सर्प जा रहा था। गुरुणीजी ने पूछा - घोर अंधेरी रात में आपको कैसे पता चला ? क्या आपको विशेष ज्ञान प्राप्त हुआ है ? मृगावती ने कहा- "हां आपकी कृपा से।" गुरुणीजी ने पुनः आश्चर्य से पूछा - प्रतिपाति या अप्रतिपाति? मृगावती जी ने कहा - "अप्रतिपाति" (केवलज्ञान)। यह सुनकर चन्दनबाला जी के मन में बड़ा पश्चात्ताप हआ। वे स्वयं को धिक्कारने लगी कि मैने ऐसी महान साध्वीजी को उपालंभ दिया। केवलज्ञानी की आशातना की। पश्चात्ताप करते-करते चंदनबालाजी को भी उसी रात केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। बहुत वर्षों तक संयम पालकर वे सिद्ध-बुद्ध और मुक्त हुई। -2-633 पूणिया श्रावक एक बार राजा श्रेणिक भगवान महावीर का धर्म उपदेश श्रवण करने गये। उपदेश सुनने के पश्चात राजा ने अपने परभव की पृच्छा की. कि मैं कहां जाऊंगा? सर्वज्ञ सर्वदर्शी भगवान ने बताया कि तुम यहां से मर कर नरक में उत्पन्न होवोगे। तुमने अच्छे कार्य भी किये हैं परंतु अच्छे कार्यों के करने के पूर्व ही तुम्हारा नरक आयुष्य बंध चुका है, अच्छे कार्यों के परिणाम स्वरूप तुम आने वाली चौबीसी में पद्मनाभ नाम के प्रथम तीर्थंकर बनोगे। राजा ने नम्रता पूर्वक विनती की कि भगवान ऐसा कोई उपाया है जिससे मैं ELEn-D नरक गमन से बच जाऊं? भगवान ने कहा कि तुम चार कार्यों में से एक भी कार्य कर सको तो तुम्हारा नरक गमन रूक सकता है। 1. कपिलादासी से दान दिलाना 2. नवकारसी पच्चक्खाण का पालन करना 3. कालसौरिक के कसाई से पशुवध बन्द कराना तथा 4. पूणिया श्रावक की सामायिक मोल लेना। उक्त तीनों बातों में असफल होने पर राजा श्रेणिक श्रावक के घर गये। पूणिया श्रावक भगवान महावीर के परम भक्त, परम संतुष्ट और अति अल्पपरिग्रही थे। रहने के लिए साफ सुथरा सादा मकान। वे प्रति दिन बारह आने की रूई की पूणिया लाते, काटते और सूत बेचकर जो परिश्रमिक मिलता उससे अपना और अपने कुटुम्ब का भरण पोषण करते थे। सदा धर्म चिन्तन में लीन रहते। मन में किसी प्रकार की आकांक्षाएं नहीं थी। सदासंतोषी और सादा जीवन व्यतीत 3000-000-00-00-07 106 Anandaditationernatforman TA Home Pelisonal use only www.jainelibrary.org

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