Book Title: Jain Dharma Darshan Part 1
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 98
________________ भगवान को सब प्रकार के रोगों का क्षय हो जाता है, वे सदा स्वस्थ रहते हैं। भाव से स्वाश्रयी अपाय - अर्थात् अठारह प्रकार के अभ्यंतर दोषों का भी सर्वथा नाश हो जाता है । वे 18 दोष ये है - 1. दानांतराय 2. लाभान्तराय 3. भोगांतराय 4. उपभोगांतराय 5. वीर्यांतराय (अंतराय कर्म के क्षय हो जाने से ये पाँचो दोष नहीं रहते) 6. हास्य 7. रति 8. अरति 9. शोक 10. भय 11. जुगुप्सा (चारित्र मोहनीय की हास्यादि छह कर्म प्रकृत्तियों के क्षय हो जाने से यह छः दोष नहीं रहते) 12. काम (स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद - चारित्रमोहनीय की ये तीन कर्म प्रकृतियां क्षय हो जाने से काम विकार का सर्वथा अभाव हो जाता है) 13. मिथ्यात्व (दर्शन मोहनीय कर्म प्रकृति के क्षय हो जाने से मिथ्यात्व नहीं रहता) 14. अज्ञान (ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय हो जाने से अज्ञान का अभाव हो जाता है) 15. निद्रा (दर्शनावरणीय कर्म के क्षय होने से निद्रा दोष का अभाव हो जाता है) 16. अविरति ( चारित्र मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय हो जाने से अविरति दोष का अभाव हो जाता है) 17. राग 18. द्वेष ( चारित्र मोहनीय कर्म में कषाय के क्षय होने से ये दोनों दोष नहीं रहते ) पराश्रयी अपायापगम अतिशय जिससे दूसरों के उपद्रव नाश हो जावे अर्थात् - जहाँ भगवान विचरते हैं वहाँ प्रत्येक दिशा में मिलाकर सवा सौ योजन तक प्रायः रोग, मरी, वैर, अवृष्टि, अतिवृष्टि आदि आदि नहीं होते। 10. ज्ञानातिशय :- भगवान केवलज्ञान द्वारा सर्व लोकालोक का सर्व स्वरूप जानते हैं। 11. पूजातिशय :- श्री तीर्थंकर सबके पूज्य है अर्थात् राजा, वासुदेव, बलदेव, चक्रवर्ती-देवता तथा इंद्र सब इनको पूजते है अथवा इनको पूजने की अभिलाषा करते हैं। 12. वचनातिशय :- श्री तीर्थंकर भगवान की वाणी को देव, मनुष्य और तिर्यंच सब अपनी-अपनी भाषा में समझते है। क्योंकि उनकी वाणी संस्कारादि गुण वाली होती है। यह वाणी पैंतीस गुणों वाली होती है, सो 35 गुण नीचे लिखते हैं 1. सर्व स्थानों में समझी जाय । 2. योजन प्रमाण भूमि में स्पष्ट सुनाई दे । 3. प्रौढ़। 4. मेघ जैसी गंभीर । 5. स्पष्ट शब्दों वाली। 6. संतोष देनेवाली । 7. सुननेवाला प्रत्येक प्राणी ऐसा जाने कि भगवान मुझे ही कहते हैं। 8. पुष्ट अर्थवाली। 9. पूर्वापर विरोध रहित। 10. महापुरुषों के योग्य। 11. संदेह रहित । 12. दुषणरहित अर्थ वाली। 13. कठिन और गुण विषय भी सरलतापूर्वक समझ में आ जाय ऐसी 14. जहाँ जैसा उचित हो वैसी बोली जाने वाली। 15. छः द्रव्यों तथा नव तत्त्वों को पुष्ट करने वाली। 19. मधुर । 20. दूसरों का मर्म न भेदाय ऐसी चातुर्यवाली। 21. धर्म तथा अर्थ इन दो पुरुषार्थों को साधने वाली। 22. दीपक समान अर्थ का प्रकाश करने वाली। 23. पर निंदा और आत्मश्लाघा रहित। 24. कर्त्ता, कर्म, क्रियापद, काल और विभक्ति वाली। 25. श्रोता को आश्चर्य उत्पन्न करे ऐसी । 26. सुनने वाले को ऐसा स्पष्ट भान हो जाय कि वक्ता सर्व गुण संपन्न है। 27. धैर्यवाली। 28. विलंब रहित । 29. भ्रांति रहित । 30. सब प्राणी अपनी - अपनी भाषा में समझें ऐसी 31. अच्छी वृद्धि उत्पन्न करे ऐसी 32. पद के, शब्द के अनेक अर्थ हों ऐसे शब्दों वाली । 33. साहसिक गुणवाली । 34. पुनरुक्ति दोष रहित । 35. सुननेवाले को खेद न उपजे ऐसी । सिद्ध भगवान के आठ गुण अट कर्म दहन ucation International सिद्ध शिला अष्ट आत्म गुण 92 जिन्होंने आठ कर्मों का सर्वथा क्षय कर लिया है और मोक्ष प्राप्त कर लिया है। जन्म मरण रहित हो गये है उन्हें सिद्ध कहते हैं। इनके आठ गुण है. 1. अनंतज्ञान- ज्ञानावरणीय कर्म का सर्वथा क्षय होने से केवलज्ञान प्राप्त होता है, इसमें सर्व लोकालोक का स्वरूप जानते हैं। 2. अनंत दर्शन दर्शनावरणीय कर्म का सर्वथा क्षय हो जाने से केवल दर्शन प्राप्त होता है। इसमें लोकालोक के स्वरूप को देखते हैं। 3. अव्याबाध सुख - वेदनीय कर्म का सर्वथा क्षय होने से सर्व प्रकार की पीड़ा रहित Personal Use Only - www.jainelibrary.org

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