Book Title: Jain Dharma Darshan Part 1
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 28
________________ चौथे भव से सोलहवें भव तक - 4. चौथे भव में मरिची चोरासी लाख का आयुष्य पूर्णकर समाधि पूर्वक मर कर पांचवें देव लोक में देवपने उत्पन्न हुआ। 5. पांचवे भव में ब्राह्मण हुआ, तापसी दीक्षा लेकर अज्ञान तप किया। 6. छठे भव में देव हुआ। 7. सातवें भव में ब्राह्मण हुआ, तापसी दीक्षा ली। 8. आठवें भव में देव हुआ। 9. नौवें भव में ब्राह्मण हुआ - तापसी दीक्षा ली। 10. दसवें भव में देव हुआ। 11. ग्यारहवें भव में ब्राह्मण हुआ, तापसी दीक्षा ली। 12. बारहवें भव में देव हुआ। 13. तेरहवें भव में ब्राह्मण हुआ, तापसी दीक्षा ली। 14. चौदहवें भव में देव हुआ। 15. पन्द्रहवें भव में ब्राह्मण हुआ, तापसी दीक्षा ली। 16. सोहलवें भव में देव हुआ। देव भव में च्यवकर कर्म वशात् बहुत से क्षुल्लक भव किये। सतरहवां भव:- विश्वभूति अनेक जन्मान्तरों के बाद 17वें भव में मरीची की आत्मा ने राजगृह नगर में राजा विश्वनंदी के छोटे भाई युवराज विशाखभूति के पुत्र विश्वभूति के रूप में जन्म लिया। इस जन्म में मुनि दीक्षा लेकर उग्र तपश्चरण किया। किसी एक समय विश्वभूति मुनि विहार करते हुए मथुरा नगरी में पधारे, मास क्षमण के पारणे के हेतु गोचरी के लिए जाते हुए विश्वभूति साधु को गाय ने गिरा दिया, यह स्थिति ससुराल में आये हुए विशाखनन्दी ने गवाक्ष में बैठे हुए देखी, तब उसने साधु की दिल्लगी (मश्करी) की - अहो विश्वभूते! तुम्हारा अब वह बल कहां चला गया है? जिसके द्वारा एक मुठ्ठीमात्र से तुमने सर्व कबीट के फलों को तड़ातड़ नीचे गिरा दिये थे, यह सुनकर उसने ऊपर देखा, विशाखनन्दी को पहचान कर विश्वभूति साधु के मन में अहंकार उत्पन्न हो गया कि देखो! 'यह पामर अब तक भी मेरी हंसी करता है, इसके मन में बड़ा गर्व है, यह जानता होगा कि इसका बल नष्ट हो गया है, यह तो अब भिक्षुक है, मगर मेरे में बल-पराक्रम मौजूद है, इस को जरा नमूना दिखा दूं'- यह सोच कर उसी गाय को सींग से पकड़कर मस्तक पर घुमाकर जमीन पर रखदी और विशाखनन्दी को फटकार कर कहा-अहो! मेरा बल कहीं नहीं गया है, यदि मेरा तप का फल हो तो भवान्तर में मैं तेरा मारने वाला बनूं! ऐसा नियाणा (निदान) किया। बहुमूल्य की वस्तु के बदले अल्पमूल्य की वस्तु मांगना उसे नियाणा कहते है। AAA AAAAD A AAAAAAAAAAAAAAA

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