Book Title: Jain Dharma Darshan Part 1
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 34
________________ ज्ञानज्योति का ज्ञानशाला में अपूर्व प्रकाश महावीर प्रारंभ से ही प्रतिभा-सम्पन्न थे। उन्हें अतीन्द्रिय ज्ञान प्राप्त था, पर वे दूसरों के सामने उसका प्रदर्शन नहीं करते थे। अर्थात् महान विचार शक्ति, श्रेष्ठ शास्त्रीय ज्ञान तथा परोक्ष पदार्थों को मर्यादित रूप से प्रत्यक्ष देख सके ऐसे ज्ञान के धारक होते है। ऐसे महाज्ञानी बालक को क्या पढ़ाना शेष रह जाता है? तथापि मोहवश माता-पिता अपने प्रिय पुत्र को पढ़ाने के लिए धूम-धाम से ज्ञानशाला ले जाते है। इन्द्र ने यह सब देखा और सोचा यह बालक तो अतीन्द्रिय ज्ञान से संपन्न हैं, अध्यापक इसे क्या पढ़ायेगा? पिता सिद्धार्थ ने बालक को पढ़ने के लिए पाठशाला भेजा। अध्यापक उन्हें पढाने लगे और वे विनयपूर्वक सुनते रहे। तब इन्द्र, एक ब्राह्मण का रूप बनाकर अध्यापक के पास पहुंचे। व्याकरण संबंधी अनेक जिज्ञासाएं प्रस्तुत की, अध्यापक उनका समाधान नहीं दे सके। तब बालक वर्धमान से पूछने पर वह सहज भाव से सारे प्रश्नों के उत्तर दे दिये। अध्यापक को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे सोचने लगे - यह तो स्वयं दक्ष है, इसे मैं क्या पढ़ाउंगा। इन्द्र ने अपना रूप बदलकर महावीर का परिचय दिया। अध्यापक ने पहले दिन ही उसे पाठशाला से मुक्त कर दिया। वर्धमान-महावीर का लग्न प्रसंग वर्धमान कुमार जब बाल भाव को छोड़कर विवाह योग्य हुए तब मातापिता के अति आग्रह के कारण शुभ मुहूर्त में समरवीर सामन्त राजा की पुत्री यशोदादेवी के साथ विवाह किया, उससे एक पुत्री का जन्म हुआ उसका नाम प्रियदर्शना रखा, जिसका विवाह भगवान के भानजे जमाली के साथ कर दिया गया। दीक्षा की अनुमति के लिए ज्येष्ठ भ्राता नंदीवर्धन से प्रार्थना और शोक महावीर के माता-पिता भगवान पार्श्व की परंपरा के उपासक थे। महावीर जब अट्ठाईस वर्ष के हुए तब उनका स्वर्गवास हो गया। माता-पिता की उपस्थिति में दीक्षा न लेने की प्रतिज्ञा पूरी पाणिगडा हो गई, वे श्रमण बनने के लिए उत्सुक हो गए। त्याग और वैराग्य मूलक साधुधर्म को स्वीकत करने की अपनी भावना अपने ज्येष्ठ-बंधु नन्दिवर्धन के समक्ष विनयपूर्वक प्रस्तुत की। बड़े भाई चिन्ता में पड़गये। अन्त में उन्होंने सोचा कि विश्व को प्रकाशित करने वाली ज्योति को एक छोटे से कोने को प्रकाशित करने के लिये कैसे रोका जा सकता है? इसलिए उनकी भावना का आदर तो किया, किन्तु माता-पिता के वियोग से उत्पन्न तात्कालिक दुःख को और न बढ़ाने के लिये नम्रतापूर्वक दो वर्ष और रुक जाने की प्रार्थना की। श्रीवर्धमान ने वह प्रार्थना आदरपर्वक स्वीकृत कर ली। एक ईश्वरीय व्यक्ति अपने ज्येष्ठ भ्राता की आज्ञा को शिरोधार्य करे, यह शिष्टता- विनय धर्म के मूलभूत बहुमूल्य आदर्श को उपस्थित कर, प्रजाजनों को इसी प्रकार व्यवहार करने की उज्ज्वल प्रेरणा देने वाली एक अनुपम और अद्भुत घटना है। ARRRRRRRRRRRRRRRRRRAMD.KAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA0000000000000 1280 wwsaitielhorary.org

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