Book Title: Jain Dharma Darshan Part 1
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 75
________________ कर्ममलिन आत्मा से, सिद्ध-बुद्ध-मुक्त परम आत्मा बनने का एक मात्र अवसर मिलता है - मनुष्य शरीर से । मनुष्य शरीर के अतिरिक्त और किसी भी शरीर से मुक्ति की आराधना एवं प्राप्ति नहीं हो सकती । मनुष्य शरीर प्राप्त हुए बिना मोक्ष- जन्म मरण से, कर्मों से, रागद्वेषादि से मुक्ति नहीं हो सकती। इसी देह से इतनी उच्च साधना हो सकती है और आत्मा से परमात्मा बना जा सकता है। परन्तु मनुष्य देह को पाने के लिए पहले एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक की तथा मनुष्य गति और मनुष्य योनियों के सिवाय अन्य गतियों और योनियों तक की अनेक घाटियां पार करनी पड़ती हैं, बहुत लम्बी यात्रा करनी पड़ती है। कभी देवलोक, कभी नरक और कभी आसुरी योनि में मनुष्य कई जन्म-मरण करता है। मनुष्य गति में भी कभी अत्यंत भोगासक्त क्षत्रिय है, कभी चाण्डाल और संस्कारहीन जातियों में उत्पन्न हो कर बोध ही नहीं पाता। अतः वह शरीर की भूमिका से ऊपर नहीं उठ पाता । तिर्यंचगति में तो एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक आध्यात्मिक विकास की प्रथम किरण भी प्राप्त होनी कठिन है। निष्कर्ष यह है कि देव, धर्म की पूर्णतया आराधना नहीं कर सकते, नारक जीव सतत भीषण दुःखों से प्रताड़ित रहते हैं, अतः उनमें सद्धर्म-विवेक ही जागृत नहीं होता। तिर्यंचगति में पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में कदाचित् क्वचित् पूर्व जन्म संस्कार प्रेरित धर्माराधना होती है, किन्तु वह अपूर्ण होती है। वह उन्हें मोक्ष की मंजिल तक नहीं पहुंचा सकती। मनुष्य में धर्मविवेक जागृत हो सकता है, कदाचित् पूर्वजन्मों के प्रबल पुनीत संस्कारों एवं कषायों की मन्दता के कारण, प्रकृति की भद्रता से, प्रकृति की विनीतता से, दयालुता-सदयहृदयता से एवं अमत्सरता- परगुण सहिष्णुता से मनुष्यायु का बन्ध हो कर मनुष्य जन्म प्राप्त होता है। नियुक्तिकार मनुष्य भव की दुर्लभता के साथ-साथ निम्न बोलो की दुर्लभता भी बताते है। 1. जीव को मनुष्य भव मिलना दुर्लभ है। 2. जीव को आर्य क्षेत्र मिलना दुर्लभ है। 3. जीव को उत्तम जाति - कुल मिलना दुर्लभ है। 4. जीव को लम्बा आयुष्य मिलना दुर्लभ है। 5. जीव को निरोगी शरीर मिलना दुर्लभ है। 6. जीव को पूर्ण इन्द्रिया (सर्वांग परिपूर्णता) मिलना दुर्लभ है। 7. जीव को संत-महात्माओं का समागम मिलना दुर्लभ है। 8. जीव को जिनवाणी सुनने का अवसर मिलना दुर्लभ है। 9. जीव को जिनवाणी पर श्रद्धा होना दुर्लभ है। 10. जीव को जिन धर्म में पराक्रम करना (संयम) अति दुर्लभ है। यही कारण है कि उत्तराध्ययन सूत्र में प्रभु महावीर फरमाते है - 'चत्तारि परमंगाणि, दुल्लाहाणीह जंतुणो । माणुसत्तं सुई श्रद्धा, संजमम्मिय वीरियं ॥ ' ( उत्तरा . 3 / 1 ) अर्थातृ जीव को ये चार अंग मिलने अति दुर्लभ हैं - मनुष्यत्व, धर्मश्रवण, श्रद्धा एवं संयम में पराक्रम। इनकी उपलब्धि बहुत ही कठिन साधना से होती है और इनकी उपलब्धि से ही मोक्ष प्राप्ति या परम पद की प्राप्ति संभव है। प्रत्येक प्राणी में इन चारों को प्राप्त करने की शक्ति तो है, परन्तु अज्ञान और मोह का इनता सघन अंधेरा रहता हैं कि जीव इनसे वंचित रहता हैं । परन्तु अधिकांश मनुष्य विषय सुखों की मोहनिद्रा में ऐसे सोये रहते हैं कि Jain Education International 69 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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