Book Title: Jain Dharma Darshan Part 1
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 62
________________ रत्नप्रभा आदि जो पृथ्वियों के नाम प्रसिद्ध है, वे उनके गौत्र है। यदि विचार पूर्वक देखा जाय तो रत्नप्रभा आदि नाम उस स्थान विशेष के प्रभाव वातावरण (पर्यावरण) के कारण हैं। रत्नप्रभा भूमि काले वर्ण वाले भयंकर रत्नों से व्याप्त है। शर्कराप्रभा भूमि भाले और बरछी से भी अधिक तीक्ष्ण शूल जैसे कंकर से भरी है। बालुका प्रभा पृथ्वी में भाड़ की तपती हुई गर्म रेत से भी अधिक उष्ण रेत है। पंक प्रभा में रक्त, मांस, पीव आदि दुर्गन्धित पदार्थों का कीचड़ भरा है। धूमप्रभा में मिर्च आदि के धुएँ से भी अधिक तेज (तीक्ष्ण) दुर्गन्धवाला धुआं व्याप्त रहता है। तमः प्रभा में सतत घोर अंधकार छाया रहता है। महातमः प्रभा में घोरातिघोर अंधकार व्याप्त है। उक्त सात नरकों में रहने वाले जीवों के अपर्याप्त और पर्याप्त कुल 14 भेद । तिर्यंच के भेद 48 सूक्ष्म बादर एकेन्द्रिय के विकलेन्द्रिय के तिर्यंच पंचेन्द्रिय के कुल 48 भेद एकेन्द्रिय के भेद 22: पृथ्वीका अप्काय तेउकाय वायुकाय 1 1 विकलेन्द्रिय के भेद 6: पर्याप्ता अपर्याप्ता 1 1 1 बेइन्द्रिय 1 तेइन्द्रिय 1 चउरिन्द्रिय 1 कुल तिर्यंच पंचिन्द्रिय के भेद 20: 1. जलचर 2. स्थलचर 1 4. स्थलचर 5. खेचर 10 पर्याप्ता Jain Education International - 22 भेद 6 भेद 20 भेद एकेन्द्रिय तथा विकलेन्द्रिय के भेद - 1 1 चतुष्पद 3. स्थलचर उरपरिसर्प 1 - भुजपरिसर्प 1 1 - 1 1 1 कुल = 11+11 = 22 1 कुल 2 2 2 6 + 10 अपर्याप्ता = कुल 5 गर्भज 5 समूर्च्छिम 10 भेद 20 भेद - साध. 1 1 पर्याप्ता वनस्पतिकाय प्रत्येक 0 * 5 1 6 प्रत्येक वनस्पतिकाय बादर ही होती है। 56 For Private & Personal Use Only अपर्याप्ता 5 6 *************** 'www.jainelibrary.org

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