Book Title: Jain Dharm aur Murti Puja Author(s): Virdhilal Sethi Publisher: Gyanchand Jain Kota View full book textPage 5
________________ ॥निवदन ॥ जन समाज की प्रचलिने उपामना प्रति अपन उदश्य से अत्यत गिर गई और इसनजारहानियाँ हारही वकि मी सलिपी नहीं है किन्तु फिर भी हम अंधविश्वास और मढ़िवाद के इतन दास बने हुए हैं कि अपनी जान की हीन अवस्था पर दार आंग्न बहाकर उस सुधारने की कोशिस नक नहा करते । लबक ने प्रस्तुत पुस्तक में जैन धर्मानुसार उपामना के स्त्रमा का जिमम हमार विचार सं. किसी भी धर्म के मानने वालों का कोई विरोध नहीं हासकता ).प्रचलित द्रव्यादि आइम्बर पूर्ण प्रजापति के पन में उठाई जाने वाली गुक्रिया का युकि-युक उ तर दत हुए. कितना मुन्दर और माङ्ग पूर्ण विवंचन किया है यह प्रकृत पुस्तक के देखने से ही संबंध रखना है । पाटको म माग मानुरोध निवदन है कि इम पुस्तक को वृय गीर के साथ माद्यंत पढ़न नथा उस पर पूर्ण विचार करने की अवश्य कृपा करे। कंवल विचार करने से ही काम नहीं चलगा! श्रावश्यकता इस बात की है कि हम समाज में प्रचलित इस उपासना पद्धति और इसीप्रकार समय के प्रभाव में अपने धर्म में घुमा दुई दसर्ग गंदी बालों को जो भी हम गुक्ति विरुद्ध मालम पड़ें, अपनी समाज मात्र निकाल फकन के लिए प्रयत्नशील होकर प्रत्यक आवश्यक सुधार का कार्य रूप में परिणत कर दिया। आशा है सुधार प्रेमी बन्धु अपनी इस जन जाति की होम अशा पर तरस लाकर उस जैन धर्म के सत्य मार्ग पर लगा देने का कटिबद्ध हो जायेंगे। जाननन्त जन. काशPage Navigation
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