Book Title: Jain Dharm Vikas Book 03 Ank 02 03 Author(s): Lakshmichand Premchand Shah Publisher: Bhogilal Sankalchand Sheth View full book textPage 4
________________ જૈનધમ વિકાસ. श्री आदिनाथ चरित्र या ॥ श्री आदिनाथ चरित्र पद्य ॥ (जैनाचार्य श्री जयसिंहसूरीजी तरफथी मळेलु.) (गतां पृ. ३ था अनुसंधान) देख दुखी मुनि दया न आई, जीवानन्द कहा सुन भाई। तुमहिं कहा हृदय मम भाई, नीक बात तुम आज सुझाई ॥ मुनिवर अवश्य चिकित्सा योग, पर में दवा समान वियोग । लक्षपाक तेल मम पासा, पर दो दवा चाहिये खासा ॥ रत्नकम्बल चंदन गोर्शीषा, मिलत करूं उपचार मुनिशा। दो वस्तु लावन कर भारा, निज कर लीना पंच कुमारा ॥ लेय भार कर चले वजारा, मिला सबहि एक वृद्ध व्योपारा। मांगी तिनसों यह दोउ चीजा, व्योपारी सुन अति सुख भीजा ॥ लाख मोहर तिन नाम बतावा, कहो किन कारण लेवन आवा। लेय मोहर हमको झट दीजे, मुनिवर देह रोगवस छीजे ।। यह सुनि बनिक अचंभा आवा, देख योवन महं धर्म प्रभावा । हुआ रोमांच बनिक अति भारी, इतनी रकम धर्म पर वारी ।। मै अतिमूढ धन बहुत कमाया, पर नहीं झुकी धर्म पर माया। इमि मन ठान बनिक इमि बोला, मै नहीं लेऊ वस्तु कर भोला। अक्षय धर्म मूल्य में लेऊ, तब में यह दोऊ वस्तु देऊ। इमि कह दोय वस्तु देदीनी, धनहिं त्याग दिक्षा पुनि लीनी ।। हुआ परमपद ते अधिकारी, अंत समय सदबुद्धि विवारी । ' सबहिं वस्तु जुटाय कर, मुनि ढिग किया पयान । तेहि अवसर मुनिराजजी, वढ तरु कर रहे ध्यान ।। करि प्रणाम पुनि आज्ञा मागी, करहुं चिकित्सा मुनिवर त्यागी॥ मुनिवर तब अनुमति दे दीनी, तबहि जिवानन्द ओषध लीनी । प्रथम तेल लिया लक्षपाका, मालिस करी देह महि राका ।। जिमि क्यारी महीं नीर बहेई, तिमि वह तेल फैल मुनि देही। तेल प्रभाव होश चलि जावा, रोग कीट पुनि बाहर आवा ॥ रत्न कम्बल पुनि मुनिहीं उडाई, तेहि में कीट लीन हुइ जाई । पुनि वह कम्बल लिया उठाई, मृत्य गाय पर दिया उड़ाई ॥Page Navigation
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