Book Title: Jain Dharm Vikas Book 03 Ank 02 03
Author(s): Lakshmichand Premchand Shah
Publisher: Bhogilal Sankalchand Sheth

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Page 21
________________ શાસ્ત્રસમ્મત માનવધર્મ ઔર મૂર્તિપૂજા. Y की विचारणा मुहम्मद पैगम्बर के पीछे उनके अनुयायी अरबों और दूसरों के द्वारा धीरे २ प्रविष्ट हुई। जैन परम्परा में मूर्ति विरोध को पूरी पांच शताब्दी भी नहीं बीती है।" पंडितजी का उक्त कथन भी मूर्तिपूजा की प्राचीनता को ही सिद्ध कर रहा है। पंडितजी के कथनानुसार तो मुहम्मद पैगम्बर के पहिले मुसलमान भी मूर्तिपूजक ही थे ऐसा सिद्ध होता है। कितनेक पुरातत्वों और शास्त्रीय मर्मज्ञों का तो यहां तक कथन है कि-इस्लाम धर्म के तेवीसे पैगम्बरोंने तो मूर्तिपूजा का विरोध नहीं किया अर्थात् सब मूर्तिपूजा को पूर्व परंपरानुसार महत्व देते ही आये किंतु चौवीसवें मुहम्मद साहब ने मूर्तिपूजा के ओट में होते हुए अन्यायों को ध्यान में रख कर मूर्तिपूजा का विरोध किया। इससे भी यही प्रमाणित होता है कि प्राचीन काल में मूर्तिपूजा को सव ही महजब महत्व देते थे और प्रतिमाद्वारा आत्म कल्याण मार्ग की और झुकते थे। इससे भी प्रतिमा की प्राचीनता सिद्ध हो रही है। - एक विद्वान् लेखक श्रीमान् अवनीन्द्र चन्द्र विद्यालंकारने "माधुरी" नामक मासिक पत्रिका के “पठान काल का सिंहावलोकन" नीमक लेख में लिखा है किः- "मुसलमानों की सभ्यता एकदम निराली थी। वे जाति पाँति और मूर्तिपूजा को नहीं मानते थे। हिंद में इनके आने के बाद ही मूर्तिपूजा के विरोध का प्रबल आन्दोलन उठ खडा हुआ था। इससे भी इसी बात की पुष्टि होती है कि मूर्तिपूजा अनादि कालीन है और मुसलमानों के भारत में आने के पश्चात् इसमें विघ्न उपस्थित किया गया था। कितनेक विद्वानों का यह भी कथन है कि मूर्तिपूजा की प्रणाली अनादि कालीन परंपरागत पद्धत्यनुसार ही है किंतु यवन लोगोंने इस धर्म की अखंड शृङ्खली को छिन्न भिन्न करने का प्रबल प्रयास और द्रव्य व्यय कर अपनी अधार्मिकता और दुष्ट प्रवृत्ति का परिचय दिया है। भारतीय पुरातत्वझ और इतिहास के विख्यात माननीय लेखक श्रीमान् रायबहादुर पंडित गौरीशंकरजी हीराचन्दजी ओझा, अपने राजपुताने के इतिहास पृष्ठ १४१८ पर लिखते हैं कि-'स्थानकवासी (इण्ढिया) श्वेताम्बर समु. दाय से पृथक् हुए जो मन्दिरों और मूर्तियों को नहीं मानते हैं उस शाखा के भी दो भेद है जो बारापंथी और तेरहपंथी कहलाते हैं । इण्डियों का समु. दाय बहुत प्राचीन नही है लगभग तीनसौ वर्ष से यह प्रचलित हुआ है।" उक्त लेखक महोदयन केवल इतिहास लेखक के लिये ही प्रसिद्ध हैं अपितु भारतीय पुरातत्वशों में आपका भी एक उच्च स्थान हैं। आपने अनेक स्थानों के शिलालेखों की खोज की है और उसका रहस्य भी निकाला है। आपकी पंक्तियों से भी यही तात्पर्य निकलता है कि स्थानकवासी समाज बहुत प्राचीन नही है किंतु अर्वाचीन ही है और मूर्तिपूजा प्रणाली बहुत प्राचीन है। इसी प्रणाली का विरोध कर स्थानकवासी समाज निकला है। . दिगम्बर विद्वान् श्रीमान् नाथूरामजी प्रेमी ने अपने भाषण में स्पष्ट शब्दों

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