Book Title: Jain Dharm Vikas Book 03 Ank 02 03
Author(s): Lakshmichand Premchand Shah
Publisher: Bhogilal Sankalchand Sheth

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Page 23
________________ સંસાર પરિવર્તન શીલ છે. ४५ विकार भी उत्पन्न होते रहते हैं, वृद्ध अवस्था तक की परिवर्तनता में मनुष्य की क्या २ स्थिति होती है यह तो पत्यक्ष अपना अनुभव कर ही रहे है। मतलब यह है कि परिवर्तन धर्म सब पदार्थों में रहा है इस लिए तो एक गंभीर वेदना के साथ कहना पडता है कि इस नियम से तीर्थंकरों का शासन भी वंचित नही रह सका । चरम तीर्थंकर प्रभु महावीर परमात्मा के शासन की आज २५ वीं शताब्दि जा रही है। इस लम्बी अवधि तक शासन में कितना परिवर्तन और विकार को स्थान मिलता है यह तो इतिहास ही घोषित कर रहा है। - १२॥ वर्ष तक धोर तपस्या करके प्रभु महावीरने शासन (तीर्थ) रुपी दिव्य शरीर का निर्माण किया था । उस समय यह शासन अत्यन्त कान्तिमय, मनोहर और बीज के चन्द्रवत् बाल्य अवस्था में था। . बड़े बड़े राजा महाराजा चक्रवर्ति वासुदेव आदि इनके शासन में आकर अपने को परम भाग्यशाली समजते थे। सर्वस्व अर्पण करके भी इस शासन की सेवा करते थे। साक्षात् देव लोक जैसे इन्द्रीय जनित सुख भोगने वाले श्री शालिभद्र, राजपुत्र मेघकुमार, श्रीजम्बुकुमार जैसे पुन्यशाली आत्मा कंचनवरणी कोमलांगी इन्द्राणियों को लज्जित करने वाली स्त्रियों को भी ठुकराकर इस शासन की शरण लेते थे। परिवर्तन शील के नियमानुसार शासन जब युवावस्था में आया तब तक तो इनका शरीर इतना हृष्ट पुष्ट और विस्तिर्ण क्षेत्र में हो गया कि इसको ठहरने का अवकाश भी नहीं मिल सका इनके सेवक भी ऐसे हुए कि इनके स्वास्थ्य की रक्षा करते हुए उत्तरोत्तर उन्नति ही करते रहे जैसे ओशवंश संस्थापक श्रीरत्नप्रभसूरि, सम्राट सम्प्रति को प्रतिबोध देने वाले आर्य सुहस्ति सुरि, दुष्काल के कारण संघ की रक्षा करने वाले आर्य वज्रस्वामि आदि महापुरुषोंने अपनी शक्ति द्वारा शासन की अपूर्व सेवा की जिससे सर्वत्र महावीर के सिद्धान्त का प्रचार हो गया ऐसा होना स्वाभाविक ही था, क्यों कि अब तक शासन की बालअवस्था से युवावस्था ही थी। पर कहा है कि-युवावस्था के ढलते ही विकार उत्पन्न हो गया फल स्वरूप वीस्तृत ६०९ में निश्चयनय को ही पकड़कर जिन कल्पो की नकल करनेवाले कुछ बन्धुओंने शासन के एक अंग को पृथक रुप कर डाला और सूत्र साहित्य भी सब नये बनाकर दिगम्बर सम्प्रदाय के नाम से अपनी अलग सिचडी पकाने लग गये।

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