Book Title: Jain Dharm Vikas Book 02 Ank 01 Author(s): Lakshmichand Premchand Shah Publisher: Bhogilal Sankalchand Sheth View full book textPage 9
________________ શ્રી આદિનાથ ચરિત્ર. - ॥श्री आदिनाथ चरित्र पद्य ॥ (जैनाचार्य श्रीजयसिंहसूरीजी तरफथी मळेलु) ( Antis ४४ ३४४ थी मनुसधान ). याते कर्म करहु अय भाई, नर्क गति कर लंघती खाइ ॥ प्राणी लक्ष मोक्षपर राखे, सत्यधर्म कर स्तुतीः भाखे । अधर्म धर्म नही करत विचारा, तिन दुख का हो अति विस्तारा ॥ सुख नैया डुबत मज्जधारा, याते धर्म करहु सुख कारा। मुनहुँ नृपति मम नाथ कृपाला, कहूं नीति मय बचन रसाला ॥ धर्म दोह संगति नहीं कीजे, या ते पूर्व कर्म सब छीजे । यह सुन मंत्री करद विवादा, महामती शतबल अपवादा। सब रुख देख नृपति इमि बोले, तुरत हृदयके पड़दे खोले। सुनहु स्वयंबुद्ध मंत्रीवर, महा बुद्धी गुणवान । धर्म कीर्ती बहु यतनसे, कीनी आज बखान ॥. पर तुम समय न देखा भाई, धर्म बात अ समयहि सुझाई ॥ धर्म ग्रहन तुमकहा बिचारी, सो मम हृदय जंची अति भारी । पर बिनु अवसर लागत फीका, अवसर आवत लागत नी का॥ योवन में दिक्षा नहीं सोहे, राग निचलत वेद धनी कोहे । धर्म करत फल हे परलोका, पर क्यो रोकत सुख यहलोका ॥ यह सुन बोला मंत्री सुज्ञानी, आवश्यक फल संका कानी। याद भइ मुझ स्वामि हमारे, एक दिन नंदन वन पग धारे ॥ तहां रमण करता एक देवा, सुन्दर तालोचन सुख देवा । . . तुमहिं देख महाराज, खुशी हुआ वह देवता। बोला सुन नृप राज, अति बल तुमरा मित्र हूं। कूर मित्र सम भोग, हो उदिग्न, छोड़ेतुरत। लीना जयरत्न जोग, तासे यह शुभगतिमिले ॥ यह कारण अय राज कुमारा, मत फसिये प्रमोद दुख कारा ॥ अपूर्णPage Navigation
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