Book Title: Jain Dharm Vikas Book 02 Ank 01
Author(s): Lakshmichand Premchand Shah
Publisher: Bhogilal Sankalchand Sheth

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Page 18
________________ જૈનધર્મ વિકાસ, मोक्ष पाने के उपाय. लेखक-जैन भिक्षु ( भद्रानंदविजयजी ) ( અંક ૧૧ પૃષ્ઠ ૩૩૧ થી અનુસંધાન) श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागम तपोभृताम । त्रिमूढा पोढ मष्टाङ्ग सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥ यथार्थ (सच्चे) देव, शास्त्र और गुरूऔका आठ अङ्ग सहित तीन मूढता और आठ मद रहित श्रद्धान करना-विश्वास करना--सम्यग्दर्शन कहलाता है, यथार्थ देव वही है कि जो वीतराग हो, सर्वज्ञ हो और हितोपदेशी हो जिसकी आत्मा से सर्व दुःखो का मूल कारण राग और द्वेषरुप शत्रु नष्ट हो चूके हो उसे वीतराग कहते हैं । संसार के सब पदार्थो को एक साथ स्पष्ट जानते हो उन्हे 'सर्वज्ञ' कहते हैं और सबके हित का उपदेश देवे सोही 'हितोपदेशी' कहलाते है एवं सच्चा देव शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर चुके हैं इस लिए वे भक्ष्य हैं जैसा स्वरूप उनका है वैसा ही मेरा है, अतः उनका श्रद्धान करना आवश्यक है। यथार्थ शास्त्रों से शुध्ध स्वरूप प्राप्त करने के उपायों का ज्ञान होता है, किन्तु जो शास्त्र सच्चे देव के द्वारा कहे गये हों, जिनकी युक्तियों अकाटय है, जिनमें प्रत्यक्ष अनुमान आदि कि भी प्रमाण से बाधा नही आती हो और जो लोक कल्याण की दृष्टि से रचित हो उन्हें 'यथार्थशास्त्र' कहते है इसलिये उनका श्रद्धान करना आवश्यक है. और सच्च। गुरू जो कषाय और विषय वासना से रहित हो एवं ममता रहित हो और शुद्ध आत्म स्वरूप को प्राप्त करानेवाले उपायो को कार्यरूपमे परिणत और कंचन और कामिनीया के त्यागी हो पांच इन्द्रियों के विषयों में जिनका मन आसक्त न हो, सत्त्व के जानकार हो वैसे शुद्ध गुरू कहलाते है इनको भःक्ष्य पर श्रद्धान करना परमावश्यकता है आत्मविकास के लिये ये शुद्ध देव, गुरू और शास्त्र पर तुलनात्मक दृष्टि से विवेकपूर्वक दृढ विश्वास करना चाहिए और भी सम्यग्दर्शन का तीसरा स्वरूप यह भी है कि ' तत्त्वार्थ श्रीनं सम्यग्दर्शनं ' अर्थात् तत्त्वोपर श्रद्धा करना ये तत्व नाव है जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रय, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष है इन नव तत्त्वो का नवतत्त्वप्रकरणादिसे परिपूर्ण ज्ञान कर के तद् रूप दृढ श्रद्धा करना है. सभ्यग्दर्शन विना किसी भी कार्य की सिद्धि नही हो सकती. उतराध्ययन अंग में कहा है कि दंसण भट्टो भठ्ठो दंसण भदस्स नत्थि निवाणं चरण रहिया सिजति, दंसण रहिया न सिजति, अर्थात् दर्शन से भ्रष्ट हुआ मोक्ष नही प्राप्त कर सकता है चारित्र के विना सिद्धि हो सकती है परंतु दर्शनके विना नही हो सकती है श्रद्धावान् मनुष्य को कोई वस्तु दुर्लभ नही है किन्तु अन्ध श्रद्धा एवं दृष्टी राग न होना चाहिए इस अवस्था को मिथ्यात्व कहते है, बस विस्तार के भयसे यहांपर इतनाही संक्षेप से विवेचन कर समाप्त करता हूँ.

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