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જૈન ધર્મ વિકાસ
जैन समाज की
स्थिति और कर्तव्य. लेखक : आर्य जैन मुनि सुखलाल (स्थानकवासी)
हमारे पूर्वाचार्यों एवं पूर्वजोंने समाज की आध्यात्मिक, नैतिक तथा व्य. वहारिक अन्नतिके लिये जिन उपयोगी नियमों का निर्माण किया था, उनमे हमारी
अज्ञानता एवं दुर्लक्ष्यतावश ऐसे २ दुर्गुणों का प्रवेश हो गया है कि जिन से सारा समाज और सारी जाति अशिक्षा की शिकार हो कर, तथा निन्दनीय रूढ़ियों के पाश में फँस कर घोर दुख के गर्त में जा पडी है।
यह व्यौपारिक-समाज हो. कर के भी किस प्रकार- आर्थिक कष्ट से ग्रसित है कि इसके होनहार-नवयुवक दस दस और बारह बारह रुपये मासिक वेतन के पीछे अपना अमूल्य समय और शक्ति खो रहे हैं । कहाँ पूर्व का आध्यात्मिक ज्ञान और नीति पूर्ण व्यवहारिक जीवन ! और कहा आज का वर्तमान का विद्या से वंचित और ढकोसलों तथा कायरता से परिपूर्ण जीवन ! ! कहा पूर्व की मंगलमय शान्ति और कहां आज की फूट और द्वेष से परिपूर्ण क्लेशमयी अवस्था !!!
कहां तो वह सुख-संपत्तिसंपन्न धन-धान्य से परिपूर्ण, और नियम आदि युक्त कल्याणमय जीवन, और कहां आज की अनेक नाशकारी दुष्प्रवृत्तियों के दल-दल में फँसी हुई कारुणिक अवस्था !
पाठको ! दशा ऐसी हीन हो गई है कि यदि इस बीसमी शताब्दि के उन्नति के युग में भी समाज ने अपनी दशा की और ध्यान नहीं दिया तो यह ध्रुव सत्य है कि इसका नाम केवल इतिहास के पृष्ठों पर ही रह जायगा। जो भी हो समाज की निद्रा-मंग अवश्य हुई है, तथापि उन्नति के क्षेत्रमें जैसा चाहिये वैसा भाग नहीं लिया है। और इसी लिए आज इसकी गणना पिछड़ी हुइ जातियों में की जाती है।
संसार की जातियों के स्वत्वों की रक्षा के सम्बन्ध में जहाँ विचारविमर्श होता है वहां इस जाति के प्रति कितना, और कैसा ध्यान दिया जाता है, इस विषय पर यदि विचार किया जाय तो पता चलेगा कि समाज कितनी नगण्य और नष्ट-प्रायः अवस्था को पहुँच चुकी है। इससे अन्य समाजों का कितना ऊंचा स्थान है और इसका स्थान कितना पिछड़ा हुवा है, इसका कारण