Book Title: Jain Dharm Vikas Book 01 Ank 07 08
Author(s): Lakshmichand Premchand Shah
Publisher: Bhogilal Sankalchand Sheth

View full book text
Previous | Next

Page 19
________________ સુખી જીવન ૨૧૩ चित्त व्यग्र बन जाता है अर्थात् क्रोधित हो जाता है उन में जो आत्मबल का प्रभाव होता है वह और जो कुछ शारीरिक बल रहता है उसका भी क्षय हो जाता है ऐसे मनुष्य निर्बल एवं कायर माने जाते है, इनका प्रभाव अन्य लोगों पर कुछ भी नही पडता लोभ पाप के फंदे मे फस कर जो मनुष्य अपने जीवन में विपत्तियों प्राप्त होने पर उद्विघ्न एवं विभ्रम हो कर चिंतातुर हो जाता है वह स्वकीय आत्मिक शांतगुण एवं समता भाव आदि को भूल जाता है निदान बलबिहीन हो कर महान् दुखी होते है, जिन का अपने स्वभाव पर स्वामित्व नही रहता उनका प्रभाव अन्यो पर केसे पड सकता है अर्थात् ऐसे मनुष्य सहज बात में उत्तम बन कर निज उत्तम शारीरिक व मानसिक बल देवा देते है, धर्मिष्ठ और सद् गुणी मनुष्य ही अपने को वश में रख सकते है और अपने आवेशों को रोक कर निज मनो विकारो पर पूर्ण अंकुश रख सकते है, जो मनुष्य वासनाओं को काबू मे रख सकते है उन्हो के वशमे मन धीरे धीरे आकर दास सदृश बनकर रहता है और शांति भी उन्ही की सेविका बन जाती है, नीतिकारो का कथन है किः-- मन सब पर असवार है, मनको मोल अनेक । जो मन पर असवार है सो शूरांमे एक ॥ अर्थात् मनका आधिपत्य सर्व संसार पर है, किन्तु जिसका मन पर आधिपत्य है वही शांतजीवन के सुखपूर्ण रहस्यों को प्राप्त कर सकता है, शास्त्रकारो का भी यही कहना है कि मन एव मनुष्याणां कारणं बंध मोक्षयोः । चित्त चलति संसारो, निश्चले मोक्षञ्च्यते ॥२॥ अतएव संसारिक बंधनो का एवं उनसे मुक्त होने का साधनो प्राय मन ही पर निर्धारित है संसार की पर्यटनावस्था मनकी चलित प्रकृतिसे संबंध रखती है, और उसी चलित प्रकृति से मनकी मुक्तावस्था ही मोक्षसुख का साधन है क्योकि यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवतितादृशी भावना भव नाशीनि अतएव सुखी जीवन की प्राप्ति के लिए शांतस्वभावी, सदाचारी एवं चंचलता रहित बनना चाहिए.

Loading...

Page Navigation
1 ... 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52