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જૈન ધર્મ વિકાસ
सुखी जीवन (लेखक-भिक्षु भद्रानंदविजय. मु. वांकली, मारवाड)
जगत के समस्त जीव सुखी और आनंदमय जीवन व्यतीत करने की इच्छा रखते हैं। और तदनुसार यथाशक्ति प्रयत्न शील भी बने रहते हैं। किन्तु अपने ही पास विद्यमान सुख को भूल कर इतउत परिभ्रमण करते रहते हैं परन्तु बहुतेक लोगोकी यह मान्यता हैं कि धनसे वैभव अथवा संसारिक पदार्थ प्राप्त होने से हमे सुख व आनंद मिलेगा, ऐसा मानना केवल बालु (रेती) में से तेल निकालने की ईच्छा करना जेसा है, लेकिन वास्तवमे देखा जाय तो यह स्पष्ट ज्ञान हो जाता है कि धन आदि प्राप्त होने पर भी सुख दूर २ ही भागता है, जिन के पास पर्याप्त धन, वैभव, प्रासाद और नौकर आदि उपस्थित है वे भी दुख के नाम पर सदा रुदन किया करते हैं अतः सुखकी प्राप्ति का आधार धन या संसार के अन्य पदार्थ पर नही है किन्तु शांतिभय जीवन व्यतीत करने की आदत प्राप्त करने से ही सुख प्राप्त होता है, और शांतिमय जीवन सदाचार एवं सत्यमार्ग के अवलंब से प्राप्त होता है, क्यों कि जो मनुष्य सत्यमार्ग से चलते है वेही सदा शांत व गंभीर और आनंदयुक्त होते है इस लिए सुखाभिलाषियोंको सदा पवित्र जीवन बिताना, मन के उपर संयम रखना, और हृदय विशुद्ध रखना चाहिए आवेश चिंता और भय को त्याग देना चाहिए स्वात्मबल प्राप्त कर के शांतिका अनुभव करना चाहिए, इस शांति को जो मनुष्य प्राप्त करते है उन में सदगुण शशि देदीप्यमान बन कर रहती है, देखिए जिनके पास धन या- रहने का स्थान न होने पर भी मस्त, आनंदी, निश्चित और सुखी कई मनुष्य होते हैं। उन महात्मा पुरुषो के समागम मे आने से यह मालूम होता है कि वे कैसे शांत व गंभीर और आनंदयुक्त होते हैं। धन और वैभव के प्रभाव में भी उनका चित्त व्यग्र नही होता वे सदैव आनंद में मस्त रहते है इन महापुरुषों के संसर्ग से मनुष्यो को शांति एवं सुखानुभव होता है और उन में सद्गुणों का प्रादुर्भाव हो जाता है, जिन मे शान्ति लेशमात्र भी नही है उन में चाहे जितनी प्रबल शक्ति क्यों न हो पर वह बन्धयावत ही है अशांत मनुष्य की शक्ति व्यर्थ में क्षीण हो जाती है, व्यवहार के छोटे छोटे कार्यों में विघ्न उपस्थित हो जाने से जिन का