Book Title: Jain Dharm Vikas Book 01 Ank 07 08
Author(s): Lakshmichand Premchand Shah
Publisher: Bhogilal Sankalchand Sheth
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જૈનધર્મ વિકાસ
॥ राग-आगयवरविमाणदिव्व०॥ दुक्खवियरणपञ्चलप्पसुहपणविहविसयपयतइवेरग्गगए ॥ पवंदमो सरणोइथवरचरणपसाहगे हयपमायसत्तू सयलणगारे ॥ वेड्डओ ॥२२॥
॥राग-जंसुरसंघा०॥ उण्णयभावा चत्तविहावा संजयजोगा सियभोगा। णिम्मलदंसण सासणसेवणतप्परचेयणभव्वसहावा ॥ पावणभव्वगुणगणविराइय-पंचमहव्वयपालगसाहू । कम्मसमुच्चयणिज्जरणामयसोहणवित्ति पवित्ति पयारा ॥रयणमाला ॥२३॥
॥ राग-वंदिऊण थोऊण॥ पत्तसंजमे भद्द साहगे। . तवविहायगे जणप्पबोहगे॥ समपरीसहाचलाहिवारगे। भववने सया सरण्णसाहुणो ॥ खित्तयं ॥२४॥
॥राग-तं महामुणिं० ॥ दुक्खसुक्खए खणे समे समे। वंदगेयरे माणएयरे ॥ लक्खरक्खगे सुधम्मदेसगे। तित्थभासगे मुणी णमामि हं ॥ खित्तयं ॥२५॥
॥श्रीदर्शनपद स्तवनम् ॥
॥राग-अंबरंतरधिभारणिआहिं० ॥ दसणं सुपरिणामसहावं । जिणयमासियतत्तं वरभावं ।। सच मेयं ति विसिढवियारं। दुविहतिविहचउपंचपयारं ॥ दीवयं ॥२६॥
॥ राग-पीण निरंतरथणभर० ॥ जायइ तं परिणइमयतिकरणणुकमभावं । चियमोहसमपमुहजोगयलक्खणपंचगभावं ॥ भवभंतिविणासगसिवसुरपयदयनढविहावं । जिणवगइयपभूसणसणनासियतावं ॥ चित्तक्खरा ॥२७॥

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