Book Title: Jain Dharm Vikas Book 01 Ank 07 08
Author(s): Lakshmichand Premchand Shah
Publisher: Bhogilal Sankalchand Sheth

View full book text
Previous | Next

Page 38
________________ ૨૩૨ જૈનધર્મ વિકાસ ॥ राग-आगयवरविमाणदिव्व०॥ दुक्खवियरणपञ्चलप्पसुहपणविहविसयपयतइवेरग्गगए ॥ पवंदमो सरणोइथवरचरणपसाहगे हयपमायसत्तू सयलणगारे ॥ वेड्डओ ॥२२॥ ॥राग-जंसुरसंघा०॥ उण्णयभावा चत्तविहावा संजयजोगा सियभोगा। णिम्मलदंसण सासणसेवणतप्परचेयणभव्वसहावा ॥ पावणभव्वगुणगणविराइय-पंचमहव्वयपालगसाहू । कम्मसमुच्चयणिज्जरणामयसोहणवित्ति पवित्ति पयारा ॥रयणमाला ॥२३॥ ॥ राग-वंदिऊण थोऊण॥ पत्तसंजमे भद्द साहगे। . तवविहायगे जणप्पबोहगे॥ समपरीसहाचलाहिवारगे। भववने सया सरण्णसाहुणो ॥ खित्तयं ॥२४॥ ॥राग-तं महामुणिं० ॥ दुक्खसुक्खए खणे समे समे। वंदगेयरे माणएयरे ॥ लक्खरक्खगे सुधम्मदेसगे। तित्थभासगे मुणी णमामि हं ॥ खित्तयं ॥२५॥ ॥श्रीदर्शनपद स्तवनम् ॥ ॥राग-अंबरंतरधिभारणिआहिं० ॥ दसणं सुपरिणामसहावं । जिणयमासियतत्तं वरभावं ।। सच मेयं ति विसिढवियारं। दुविहतिविहचउपंचपयारं ॥ दीवयं ॥२६॥ ॥ राग-पीण निरंतरथणभर० ॥ जायइ तं परिणइमयतिकरणणुकमभावं । चियमोहसमपमुहजोगयलक्खणपंचगभावं ॥ भवभंतिविणासगसिवसुरपयदयनढविहावं । जिणवगइयपभूसणसणनासियतावं ॥ चित्तक्खरा ॥२७॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52