Book Title: Jain Dharm Prakash 1937 Pustak 053 Ank 10
Author(s): Jain Dharm Prasarak Sabha
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha

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Page 4
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir FFICE . . . . . . . श्रीचतुविवातिजिनन्तुति अरविन्द-लोचन रूप अनुपम. धर्म के अनुरूप हो. श्रीधमंजिनवर नाथ भयहर. और सिद्धस्वरूप हो । तारणतरण शुभ नाम पाया. हे विभो ! जग में अहा !, अव शरण राखो नाथ ! अपने. सेव्य हो मेरे महा ॥१५॥ पारेवरक्षक इश जिनवर. विश्व के आधार हो. लखते सभी नर प्रेम से वे. विमल गुण के हार हो । हे नाथ ! चौ गति चौक में मम. कष्ट देत कम हैं, सब शान्त कर दो शान्ति जिनवर, आप का यह धर्म है ॥ १६ ॥ हे कुन्थुजिन ! अघपुंज वारक. मेट दो सन्ताप को, हो परमध्यानी श्रेष्टज्ञानी. माफ कर मुझ पाप को । दुःखरोग नरक निगोद के हैं, जो सभी वह नष्ट हो, शुभ जन्म गति कुल प्राप्त हो. मम धर्म जिनवर इष्ट हो ॥ १७ ॥ सुसमवसरण में बैठ के उपदेश की गुभ वृष्टि से, करते चराचर जीव का, उद्धार निज समदृष्टि से । अरनाथ जिनवर विश्वजन के. वन्ध हो उत्कर्ष से. फिर आप सदृश क्यों न करते ?, नाथ मुझ को हर्ष से ॥ १८ ॥ सर्वज्ञ हो प्रभु सर्वदर्शी, निर्विकारी सत्य हो. षट्र भूप को गणधर किये थे, आप ही कृतकृत्य हो । सव देव देवी इन्द्र आदिक, सेवत है आप को. शुभ पुन्यराशी प्राप्त करके, दूर कर भव-ताए को ॥ १९, . सुर इन्द्र किन्नर नाग लेवे. श्रेय पदकज को विभो .. मुनिसुव्रत हो आनन्दकारी, आप की जय हो प्रभो !। अशरण-शरण हो नाथ जग के. ज्ञानगुण भरपूर हो, लयलीन रहते ध्यान में जो. विपद से वो दूर हो ॥ २० । अनुपम अगोचरं जिन अभोगी. योग्य हो आराध्य हो, नमिनाथ अदभुत श्रेष्ट निज-आण के विलासी साध्य हो। निज चित्त को शुभ बाग में. मलीन कर फिर मोक्ष में, इस भांति मेरे नित्त को नी. क्यों न करते नोक्ष में ? ।। २. For Private And Personal Use Only

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