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आशिकता में मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है, क्योंकि ये ही त्रिरत्न हैं। अपरिग्रह सम्यग्दर्शन है, अनेकान्त सम्यग्ज्ञान का प्रतिरूप है और अहिंसा सम्यक् चारित्र है। इन त्रय रत्नों को अपने जीवन का पाथेय बनाकर अद्यावधि आचार्य धर्मभूषण जी ने मुक्ति पथ पर बढ़ते हुए दिग्भ्रमित जीवों को वीतरागता की ओर उन्मुख किया है।
'वीतरागता' आचार्य श्री के संघ का अटल नियम है। महाव्रती मूलधारा के इसी मार्ग पर चलकर मुक्ति को प्राप्त कर सकता है। राग और हिंसा को बढ़ावा देने वाली आधुनिक भौतिकता की चकाचौंध का संघस्थ आपके किसी पर भी कोई प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता। कूलर, हीटर, मच्छरदानी, फोन, मोबाईल फोन, आदि का प्रयोग संघ में पूर्णतः वर्जित है। केशलुञ्च, दीक्षा दिवस, जन्मदिन आदि का समारोह भी नहीं मनाया जाता। अनेक विद्यालय, इण्टर कालेज, डिग्री कालेज, धार्मिक पाठशालाएं, धर्मशालाएं एवं अस्पताल आचार्य श्री के आशीर्वाद से सञ्चालित हैं, परन्तु उनके नाम से कोई भी संस्था नहीं है। किसी भी संस्थान को केन्द्र बिन्दु बनाकर कभी आपने उसके लिए धनसंग्रह आदि का विकल्प नहीं बनाया, उदार भक्तों ने स्वतः ही आपके वीतराग भाव से प्रेरणा लेकर परकल्याण हेतु उन्हें समृद्ध बनाया। आप इस प्रतिबन्ध के साथ कहीं ठहरते या चातुर्मास करते हैं, जहां धूप खेवन, दीप जलाना, हवन करना, लाईट की सजावट आदि जीवों के घात होने वाली क्रियाएं नहीं होगी। कलिकाल एवं अन्यधर्मों की विकृतियों के गहराते प्रभाव से जिनभक्तों को बचाने के लिए कतिपय महाव्रतियों ने सम्प्रति इन विभिन्न क्रियाकलापों के सम्बन्ध में शिथिलता मूलक उदारता का भी परिचय दिया है, परन्तु आचार्य धर्मभूषण जी ने विषम परिस्थितियों में भी दृढ़तापूर्वक मूल सिद्धान्तों पर ही दृढ़ रहने का उपदेश दिया है।
मिथ्यात्व एवं आगम विरोधी गतिविधियों, क्रियाओं और परम्पराओं में जैनकुल दीपों की अभिलिप्तता के कारण जैन संस्कृति के सितारों के ज्ञान प्रकाश को धूमिल देख आचार्य श्री के हृदय की अजस्त्र करुणरसधारा आदिकवि की भांति वाणी में अधिष्ठापित हो गयी। साधु जीवन की कठिन, नियमित और संयमित दिनचर्या में उपदेश का समय सीमित है तथा इस कलिकाल में उसका प्रभाव भी स्थायी नहीं, यह जानकर वे अपनी विलक्षण स्वानुभूति को लेखनी के माध्यम से मूर्तरूप देने का प्रयत्न करते रहे। प्रारम्भ से ही आचार्य श्री स्वाध्याय रसिक, उत्कृष्ट क्षयोपशमी एवं विलक्षण धारणा शक्ति सम्पन्न रहे हैं। न जाने कितने श्लोक, गाथाएं, सवैये, भजन, दोहे आदि उनको कण्ठस्थ हैं। पूज्य 108 आचार्य श्री शान्तिसागर जी हस्तिनापुर वालों के इन सुयोग्य शिष्य ने जैसे अन्तरंग की आंख से समयपूर्व ही अनागत देख/पढ़ लिया। यही कारण है कि वे जो पढ़ते, चिन्तन करते अथवा कहीं कोई जनोपयोगी मानव मात्र को सम्यक् पथारूढ़ करने वाला सहज / सरल दृष्टान्त प्राप्त करते उसे तुरन्त नोट कर लेते और देखते देखते, चतुरनुयोग समन्वित सैद्धान्तिक, रूढिभंजक, मिथ्यात्व नाशक वह संग्रह विशाल ग्रन्थ रूप हो गया। शिष्यों का एक विशाल समुदाय अहर्निश अपने गुरु की चर्या का अन्तर्साक्षी था ही, बहु आयामी बनकर वह क्षण भी आया जब उन्होंने भावभीना निवेदन किया- 'गुरुदेव, जब से आपने सल्लेखना धारण की हमारा मोही मन भयभीत रहता है। हम रागी और लोभी प्राणी हैं, हम चाहते हैं आप अपनी धरोहर हमें सौप दें। यह हमें ज्ञान समर्थ/सम्पन्न बनाएगी तथा चारित्र
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