Book Title: Jain Darshansara
Author(s): Narendra Jain, Nilam Jain
Publisher: Digambar Jain Mandir Samiti

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Page 18
________________ सम्पादकीय युगद्रष्टा, युगशिल्पी एवं श्रमणसंस्कृति के समर्थ संवाहक, चारित्र चूड़ामणि परम पूज्य 108 आचार्य प्रवर श्री शान्तिसागर जी 'छाणी' की गौरवमयी परम्परा के यशस्वी संवर्द्धक 108 आचार्य श्री धर्मभूषण जी महाराज वर्तमान में ऐसे गरिमामण्डित श्रमणरत्न हैं, जो अपनी कठोर निर्दोष मुनिधर्मचर्या एवं आगमसम्मत सैद्धान्तिक धर्मचर्चा से सर्वत्र विख्यात हैं। 'जे कम्मे सूरा ते धम्मे सूरा' के जीवन्तरूप आचार्य श्री गृहस्थ जीवन से अपने निरन्तर चिन्तन, मनन तथा आचरण द्वारा अपनी अन्तश्चेतना की उन गहराईयों में स्थापित रहे जहां से उनकी आत्मानुभूति परिष्कृत होकर उदात्त साधना से आत्मिक विकास के सोपानों पर उर्ध्वारोहण हेतु अनवरत गतिमान रही। स्वाध्याय, साधु संगति एवं वैय्यावृत्ति के पावन-परस से विकास पथ की समस्त बाधाओं एवं व्यवधानों से परे शान्ति, पवित्रता, कल्याण, सद्भावना तथा सद्विचार कोष से अक्षयदान करते हुए दिव्य एवं चरम सत्य से अनुप्राणित सद्गृहस्थ, श्रेष्ठ श्रावक की समस्त क्रियाओं के समुचित अनुपालन के साथ जीवन के परम साध्य उस अन्तर्रात्मा में रम गए, जो मानव उन्नति की पराकाष्ठा है एवं उत्तम पुरुषार्थ की चरम परिणति है। जैनदर्शन जिन्हें सच्चा साधु, वीतरागी सन्त तथा उत्कृष्ट श्रमण कहता है, गृहस्थ प्रेमचन्द्र ने ब्र० प्रेमचन्द्र, क्षुल्लक कुलभूषण, मुनि धर्मभूषण और आचार्य धर्मभूषण ने खुली खड्ग पर नंगे पांव चलने जैसे कठोर तप के कण्टकाकीर्ण पथ को बहुत विवेक और साधना से तय किया है। शुभ्र आध्यात्म शिखर के ध्यानस्थ योगी और साधक होते हुए भी आचार्य श्री की करुणा एवं वात्सल्य सरिता का पवित्र एवं दिव्य स्रोत प्रतिपल जगतीतल पर प्रवहमान रहता है। मानवता के प्राङ्गण को अभिसिञ्चित करती हुई उनकी करुणा आशीष बनकर हरपल झलकती और छलकती है। प्रत्येक के शीष पर उनके आशीष की छत्रछाया है। समदिक् ऊर्ध्वविकास की भावनाएं उनके रोम-रोम से प्रस्फुटित होती हैं। संसार के दुःखी प्राणियों का चित्त अनायास उस ओर आकर्षित होता है। पं. दौलतराम जी कहते हैं, करुणा को धारण करके ही गुरु संसारी प्राणियों को शिक्षा देते हैं, उपदेश देते हैं 'कहे सीख गुरु करुणा धार'। __आध्यात्म शिखर पर आरुढ़ सन्त कल्पनाओं में नहीं जीता। वह एक आत्मरस में ही लीन रहता है। उसकी वह आत्मलीनता स्वयं प्रकाश रूप है, जो अपनी ही दीप्ति से दैदीप्यमान रहती है, पर का उसे भान नहीं रहता। शरीर के संयोग बने रहने तक उनके आत्मानुभव के विकीर्ण होते प्रकाश पुञ्ज से दूसरे भी प्रकाशित होते हैं। अहिंसा और अनेकान्तात्मक दृष्टि के स्पर्श से परिमार्जित उनकी स्याद्वादमयी वाणी के समक्ष व्यक्ति एकान्त और दुराग्रह का परित्याग कर वस्तुस्थिति को समझने की ओर अग्रसर होता है। शनैः शनैः उसके हृदय में उद्भूत अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह का प्रबल प्रवाह वृद्धिगत होता हुआ वीतरागता को प्राप्त करा देता है। वीतरागता की पूर्णता में शिवत्व और xvi

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