Book Title: Jain Darshan ke Mul Tattva
Author(s): Vijaymuni Shastri
Publisher: Diwakar Prakashan

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Page 30
________________ द्रव्य का स्वरूप | १३ त्रिकालवर्ती है, उसकी सत्ता से इनकार नहीं किया जा सकता। यहाँ प्रश्न उठता है कि जगत् की सत्ता त्रिकालवर्ती है, तब वह परिवर्तित क्यों होता है ? यदि वह परिवर्तनशील है, तो असत् होना चाहिए? परन्तु ऐसा नहीं है। क्योंकि जैन-दर्शन किसी भी पदार्थ को एकान्त-नित्य या एकान्त-अनित्य नहीं मानता। वास्तव में पदार्थ एकान्त रूप से न नित्य है और न एकान्त रूप से अनित्य है। वह यह मानता है कि द्रव्य में परिवर्तन होते हए भी उसमें स्थिरता है। जैन-दर्शन की यह मान्यता विज्ञान के प्रकृति की अनश्वरता का नियम (law of indestructibility of matter) है। प्रकृति के इस नियम को १८वीं शताब्दी के विश्रुत वैज्ञानिक श्री लाह्वाइजियर (Lahvoisier) ने इन शब्दों में जगत के समक्ष रखा था-"कुछ भी निर्मेय नहीं है और प्रत्येक क्रिया के अन्त में उतनी ही प्रकृति रहती है, जितने परिमाण में वह क्रिया के आरम्भ में थी। केवल प्रकृति का रूपान्तर (modification) होता है। वास्तव में इस नियम से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रत्येक द्रव्य अपने स्वरूप में स्थित रहता है। परिवर्तन होता है-वह द्रव्य के शुद्ध स्वरूप में नहीं, प्रत्युत उसके पर्यायों में होता है । सत् न तो एकान्त रूप से नष्ट होता है और न एकान्त रूप से नया ही बनता है। वह अपने स्वरूप में रहते हुए नयेनये पर्यायों को धारण करता है। द्रव्य, गुण और पर्याय जब हम यह कहते हैं कि यह द्रव्य है, तो इसका अभिप्राय यह हैवह अपने स्वरूप में रहते हए अपने विविध परिणामों के रूप में द्रवित होता है। भगवान महावीर ने कहा है-द्रव्य, गुण और पर्याय से युक्त है । गुण द्रव्य में रहते हैं, और पर्यायें भी गुण और द्रव्य में रहते हैं । आचार्य उमास्वाति ने भी द्रव्य की व्याख्या करते हुए कहा है-गुण-पर्यायवद् द्रव्यम् । आचार्य कुन्दकुन्द ने भी यही कहा है-द्रव्य, गुण और पर्याय से कभी भी शून्य नहीं हो सकता । गुण और पर्याय भी द्रव्य के बिना नहीं रह सकते । बिना पर्याय का द्रव्य नहीं हो सकता और बिना द्रव्य के पर्याय का होना भी सम्भव नहीं। अतः द्रव्य गुण-पर्यायात्मक होता है। यहाँ यह समझने की बात है कि द्रव्य, गुण और पर्याय में परस्पर अन्यत्व तो है, परन्तु पृथक्त्व नहीं है । वस्तुओं में परस्पर जो भेद पाया जाता है, वह दो प्रकार का है-पृथक्त्वरूप और अन्यत्वरूप । प्रदेशों की भिन्नता पृथक्त्व है और तद्रूपता नहीं होना अन्यत्व है। जिस प्रकार दूध और दूध की सफेदी एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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