Book Title: Jain Darshan ke Mul Tattva
Author(s): Vijaymuni Shastri
Publisher: Diwakar Prakashan

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Page 168
________________ बन्ध-तत्त्व आत्म-प्रदेशों के साथ कर्म परमाणुओं का जो सम्बन्ध होता है, उसे बन्ध कहते हैं । बद्ध आत्मा अपने स्वरूप को भूल जाता है। जोव कषायवश होकर कर्म के योग्य कार्मण वर्गणा रूप पुद्गल स्कन्धों को ग्रहण करता है, वह पुद्गल स्कन्धों का ग्रहण ही बन्ध कहलाता है । कार्मण वर्गणा रूप पुद्गल सम्पूर्ण लोक में परिव्याप्त हैं। कषाय के कारण आत्मा के साथ उसका सम्बन्ध हो जाता है, वह बन्ध है । _ जैसे एक व्यक्ति अपने शरीर पर तेल लगाकर धूलि में लेट जाए, तो धूलि उसके शरीर पर चिपक जाती है। मिथ्यात्व एवं कषाय आदि से जीव के प्रदेशों में जब हल-चल होती है, तब जिस आकाश-प्रदेश में आत्मा के प्रदेश हैं, वहीं के अनन्त-अनन्त कर्म योग्य पुद्गल परमाणु जीव के एकएक प्रदेश के साथ बँध जाते हैं। कर्म परमाण और आत्म-प्रदेश इस प्रकार मिल जाते हैं, जैसे दूध और पानी, तथा आग और लोह-पिण्ड परस्पर एक होकर मिल जाते हैं । आत्मा के साथ कर्मों का जो यह सम्बन्ध होता है, वही बन्ध कहलाता है । बन्ध के कारण ही आत्मा अनन्त संसार में, अनन्त काल से परिभ्रमण करता है । जन्म और मरण करता है। बन्ध के भेद बन्धभूत कर्म के चार भेद१. प्रकृति २. स्थिति ३. अनुभाग ४. प्रदेश १. प्रकृति बन्ध-कर्म परमाणुओं में ज्ञान एवं दर्शन आदि के ढकने का स्वभाव । ( १५१ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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