Book Title: Jain Darshan ke Mul Tattva
Author(s): Vijaymuni Shastri
Publisher: Diwakar Prakashan

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Page 181
________________ १६४ | जैन-दर्शन के मूलभूत तत्त्व (५) द्रव्य की अपेक्षा से घट नित्य होने के साथ युगपत् विवक्षा से अवक्तव्य है। (६) पर्याय की अपेक्षा से घट अनित्य होने के साथ युगपत् विवक्षा से अवक्तव्य है। (७) द्रव्य और पर्याय की अपेक्षा से घट क्रमशः नित्य और अनित्य होने के साथ साथ युगपत् विवक्षा से अवक्तव्य है। पिछले तीन वचन प्रयोग, अवक्तव्य रूप चतुर्थ भंग के पहला दूसरा और तीसरा मिलाने से बनते हैं । अतः वास्तव में मुख्य रूप से तीन या चार ही भंग है । यह सप्त भंगी का स्वरूप है । वस्तुतः शब्द की प्रवृत्ति प्रवक्ताओं के भावों पर आधारित होती है। प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म होते हैं। विभिन्न प्रवक्ता अपने-अपने दृष्टिकोण से उनका उल्लेख करते हैं । जैन दर्शन में अनेकान्तवाद और स्याद्वाद का स्थान अत्यन्त गौरवपूर्ण माना जाता है। सप्तभंगीवाद, नयवाद और प्रमाणवाद-ये सब स्याद्वाद रूपी दुर्ग के संरक्षक हैं । अनेकान्तवाद एक दृष्टि है, उसकी अभिव्यक्ति स्याद्वाद के द्वारा होती है। अतः अनेकांत का भाषात्मकरूप ही तो स्याद्वाद और सप्तभंगीवाद है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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