Book Title: Jain Darshan ke Mul Tattva
Author(s): Vijaymuni Shastri
Publisher: Diwakar Prakashan

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Page 182
________________ प्रमाण और नय प्रमाण- - अपना और दूसरे का निश्चय कराने वाले यथार्थ ज्ञान को कहते हैं | प्रमाण वस्तु को सब दृष्टि-बिन्दुओं से जानता है । वस्तु के समस्त अंशों को जानने वाला प्रमाण होता है । नय - प्रमाण द्वारा ज्ञात अनन्त-धर्मात्मक वस्तु के किसी एक अंश अथवा गुण को मुख्य करके जानने वाले ज्ञान को नय कहते हैं । नय-ज्ञान वस्तु के अन्य अंश की ओर उपेक्षा या गौणता रहती है । में मुख्य-पदार्थ के अनेक धर्मों में जिस समय जिस धर्म की विवक्षा होती है, उस समय वही धर्म प्रधान माना जाता है । प्रधान धर्म को मुख्य धर्म कहा जाता है । गौण - मुख्य धर्म के अतिरिक्त सभी अविवक्षित धर्म गौण कहलाते हैं । जिसकी विवक्षा उस समय न हो, वह गौण होता है । सामान्य - वस्तु के जिस धर्म के दीखते हों, उसको सामान्य कहते हैं । सामान्य है । Jain Education International कारण अनेक पदार्थ एक जैसे जैसे अनेक गायों में गोत्व पदार्थों से भिन्नता का बोध जैन दर्शन में वस्तु सामान्य विशेष- सजातीय और विजातीय कराने वाला धर्म, विशेष कहा जाता है। विशेषात्मक मानी जाती है । सामान्य द्रव्य है, और विशेष पर्याय कहा जाता है । ( १६५ ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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