Book Title: Jain Darshan ke Mul Tattva
Author(s): Vijaymuni Shastri
Publisher: Diwakar Prakashan

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Page 146
________________ ३. बादर पर्याप्त २. विकलेन्द्रिय के छः भेद- १. द्वीन्द्रिय पर्याप्त ३. त्रीन्द्रिय पर्याप्त ५. चतुरिन्द्रिय पर्याप्त ३. पञ्चेन्द्रिय के चार भेद १. असंज्ञी पर्याप्त ३. संज्ञी पर्याप्त - जीव-तत्त्व | १२६ ४. बादर अपर्याप्त Jain Education International २. द्वीन्द्रिय अपर्याप्त ४. त्रीन्द्रिय अपर्याप्त ६. चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त २. असंज्ञी अपर्याप्त ४. संज्ञी अपर्याप्त जीव के चतुर्दश भेद हैं । एकेन्द्रिय के चार भेद हैं । विकलेन्द्रिय के छह भेद हैं । पञ्चेन्द्रिय के चार भेद हैं । सब मिलाकर जीव के चतुर्दश भेद हैं । सूक्ष्म और बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त, तथा संज्ञी और असंज्ञी - ये विशेष शब्द हैं । इनका अर्थ समझना परम आवश्यक है । पहले विकल और सकल को समझना है । विकल का अर्थ है - अपूर्ण, अधूरा । सकल का अर्थ है - पूर्ण, समस्त । इन्द्रिय का अर्थ है - ज्ञान के साधन । मूर्त रूपवान् और पुद्गल - तीनों का एक अर्थ है। पुद्गल कैसा है ? मूर्त है । रूपवान् अथवा रूपी है । इसका इन्द्रियों के द्वारा ज्ञान होता है । अमूर्त एवं अरूपी को इन्द्रियाँ ग्रहण नहीं कर सकती हैं। वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श को रूप अथवा मूर्ति कहते हैं । ये सब पुद्गल के विशेष धर्म हैं । इन्द्रियाँ इनको ग्रहण करती हैं । स्पर्श को ग्रहण करने वाली इन्द्रिय स्पर्शन कहलाती है, इसको त्वचा भी कहा जाता है । रस को ग्रहण करने वाली रसना, गन्ध को ग्रहण करने वाली घाण, रूप को ग्रहण करने वाली चक्षु अथवा नेत्र और शब्द को ग्रहण करने वाली श्रोत्र । इन्द्रियों के आधार पर जीव के पाँच भेद होते हैं । जाति नाम कर्म नाम कर्म के बयालीस भेदों में एक भेद जाति नाम कर्म है, उसके पाँच भेद इस प्रकार हैं १. जिस कर्म के उदय से जीव को केवल एक इन्द्रिय, त्वग्, त्वचा एवं स्पर्शन की प्राप्ति हो, उसे एकेन्द्रिय जाति नाम कर्म कहते हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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