Book Title: Jain Darshan ke Mul Tattva
Author(s): Vijaymuni Shastri
Publisher: Diwakar Prakashan

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Page 133
________________ ११६ ! जैन-दर्शन के मूलभूत तत्व हैं, परन्तु तीनों का समन्वय जीवन में परिलक्षित होता है। अतः यह समझ लेना आवश्यक है कि तीनों दृष्टियाँ एवं तीनों विचारधाराएँ क्या हैं ? इनकी परिभाषा क्या है ? विचार एवं चिन्तन की दृष्टि से तीनों का अपना-अपना स्वतन्त्र स्थान एवं महत्व है। वैज्ञानिक दृष्टि वस्तु में स्थित सत्य का अन्वेषण करती है, वह वस्तु को खण्ड-खण्ड करके उसमें निहित तथ्य को, यथार्थता को जानने का प्रयत्न करती है। दार्शनिक दृष्टि कल्याणकारी, मंगलमय एवं अमृतमय तथ्य को देखने का कार्य करती है। दार्शनिक का ध्यान कल्याण, मंगल और अमत को खोज निकालने और जन-जन को वितरित करने का रहता है। कवि की दृष्टि जड़-चेतन प्रत्येक वस्तु में स्थित सौन्दर्य एवं माधुर्य को देखने-परखने की रहती है। वैज्ञानिक सत्य का अन्वेषक है, दार्शनिक अमृतमय एवं कल्याणमय स्वरूप को सामने रखकर चिन्तन-मनन करता है और कवि वस्तु के सौन्दर्य एवं माधुर्य का अवलोकन करता है । तीनों के कार्य तीन तरह के होते हुए भी तीनों एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न नहीं है। वास्तव में, सच्चा वैज्ञानिक वहो है, जो दार्शनिक भी है, और कवि भी है। सच्चा दार्शनिक वही है, जिसमें वैज्ञानिक एवं कवि की सत्यान्वेषण और सौन्दर्य-अवलोकन की दृष्टि भी निहित है । सच्चे अर्थ में कवि वह है, जो वैज्ञानिक एवं दार्शनिक की भावना से ओतप्रोत है। महान् विचारकों में हमें तीनों दृष्टियों का समन्वय स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। कालिदास अपने युग का एक महान कवि था और आज भी महान् कवि के रूप में विश्व में प्रसिद्ध है। उसके द्वारा रचित मेघदूत में कालिदास को वैज्ञानिक दृष्टि स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है, रघुवंश में उसके दार्शनिक रूप का कल्याणकारी एवं अमृतमय चिन्तन का स्पष्ट दर्शन होता है और अभिज्ञान-शाकुन्तल में उसका कवि हृदय बोल रहा है, वह पद-पद पर सौन्दर्य को छटा बिखेरता चल रहा है। महाकवि कालिदास के काव्य में वैज्ञानिक, दार्शनिक एवं कवि, इन तीनों दृष्टियों का समन्वय परिलक्षित होता है। भगवान महावीर के द्वारा उपदिष्ट आगम साहित्य का अनुशीलनपरिशीलन करने पर हम निस्सन्देह कह सकते हैं कि भगवान महावीर का जीवन, एवं उनकी साधना तीनों दृष्टियों से समन्वित थी। भगवान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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