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लेखककी ओरसे
शिवाची यूनिवर्सिटी, कोल्हापुर में मैने डो. ए. एन्. उपाध्येकी स्मृतिमें दो व्याख्यान ता. ७ और ८ अक्तूबर, १९७७ में दिये थे । उन्हीं दो व्याख्यानों को यत्र तत्र संशोधनवृद्धि करके प्रस्तुत 'जैनदर्शन का आदिकाल' प्रकाशित किया जा रहा है। इन व्याख्यानों के निमित्त कुछ नया सोचने का मुजे अवसर मिला एतदर्थ मैं शिवाजी यूनिवर्सिटी का आभारी
ई. १९४९ में न्यायावतारवार्तिक वृत्ति (सिंघी जैनग्रन्थमाला) की प्रस्तावना में मैंने जैन आगमों से जैनदर्शनकी रूपरेखा देनेका प्रयत्न किया था। उसी प्रस्तावनाको ‘आगमयुगका जैनदर्शन' इस नामसे सन्मति ज्ञानपीठ, आग्राने ई. १९६६में प्रकाशित किया था । किन्तु उसमें जैन दर्शनका प्रारंभिकरूप कैसा था इसकी चर्चा मैंने नहीं की थी।
जैनदर्शनके विकास को समझने के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि उसके प्रारंभिकरूप को समझा जाय । अतएव प्रस्तुत व्याख्यानों में मैंने इसी विषयकी विशेष चर्चा करना उचित समझा है । इस चर्चा के बाद भी उक्त प्रस्तावना और प्रस्तुत जैन दर्शन के प्रारंभिकरूप के बीच एक और कडी की आवश्यकता है जिसमें विस्तारसे आगम के द्वितीयस्तर गत जीवविचार आदि विवरण दिया जाय । ऐसा होने पर ही आगम युगका जैन दर्शन अपने यथार्थ रूपमें विद्वानों के समक्ष उपस्थित होगा।
उक्त प्रस्तावनामें मैंने प्रमाण और प्रमेय की चर्चा जो ताकिकों ने की हैं उसीका पूर्वरूप आगमों में कैसा था-यह दिखाने का प्रयत्न किया था । किन्तु वह आगम के तीसरे स्तरके आधार से था । प्रस्तुत में आगम के प्राचीनतम प्रथम स्तर के आधार से जैनदर्शनका प्रारंभिक रूप कैसा था यह दिखानेका प्रयत्न है । पता नहीं मेरे इस प्रयत्न को विद्वान् किस रूपमें लेंगे । किन्तु मैंने इसमें मुजे जो प्रतीत हुआ उसे देने का प्रयत्न किया है । यह भी संपूर्णरूपमें उपस्थित कर सका हूँ यह मैं नहीं कह सकता। किन्तु यह भी मात्र रूपरेखा है। इसमें और भी कई बातें जोडी जा सकती हैं । किन्तु वह तो कोई अन्य तटस्थ विद्वान् करे तब होगा। मुजसे जो बन पडा मैंने विद्वानों के समक्ष विचारणार्थ रखा है । आशा करता हूं कि इस दिशामें विद्वानों का ध्यान जायगा तो मैं अपना श्रम सफल समझू*गा । डॉ. रमणीकभाई शाहने पुफ देखने में सहायता की है अतएव उनका आभारी हूँ।
ला. द० विद्यामन्दिर अहमदाबाद-९. ता. ७-५-१९७९
दलसुख मालवणिया
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