Book Title: Jain Darshan ka Adikal Author(s): Dalsukh Malvania Publisher: L D Indology AhmedabadPage 28
________________ आचारांग प्रथम श्रुतस्कंधमें दर्शनका रूप मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष; और संस्थान के दीर्घ, ह्रस्व, वृत्त, व्यश्र, चतुरश्र और परिमंडल'। यहाँ ध्यान देनेकी बात यह है कि शब्द को वैशेषिक सूत्र १.१.५ में गुण नहीं कहा हैं, किन्तु आगे चलकर उसे २. १, २० में आकाशका लिंग कहा है। किन्तु वैशेषिकसूत्र के व्याख्याकारोंने शब्द को भी गुण मान लिया है । न्यायसूत्र १.१.१३ में शब्द को गुण माना ही है। सांख्योंने शब्द को श्रोत्रका विषय तो माना साथ ही कर्मेन्द्रियों में वाक् को स्वतंत्र इन्द्रिय मान कर वचन को उसका व्यापार माना । सांख्यकारिका-२६, २८ । यहाँ यह भी ध्यान देने की बात है कि आचा०च्०पृ०१९९ में ह्रस्व-दीर्घ को संस्थान माना है किन्तु उत्तराध्ययन में पुद्गलपरिणामों की चर्चा के प्रसंगमें-(३६. १५.-२१) संस्थान में ह्रस्व-दीर्घ की गिनती नहीं की गई। किन्तु स्थानांग के प्रारंभमें एक-एक की गिनतीमें दीर्घ-हस्व गिनाये गये हैं। और उसका स्थान आचारांग की ही तरह वृत्त के पूर्व में हैं। जब जीवकी गति मानी गई तब उसे व्यापक तो माना नहीं जा सकता था अतएव स्पष्ट रूपसे कालक्रमसे देहपरिमाण माना गया । और मुक्तिस्थान में उसकी जब गति मानी गई तब प्रश्न हुआ कि सिद्धावस्था में उसका परिमाण क्या हो ? इस प्रश्न का उत्तर आ चलकर अन्य आगमों में दिया गया कि अंतिम शरीर ३/४ परिमाण होगा ऐसी स्थितिमें यहाँ जो कहा गया कि वह न दीर्घ है, न ह्रस्व इसका विसंवाद होता है । स्पष्ट है कि यहां जो वर्णन है वह उपनिषदों का अनुसरण करता है । उससे जो सिद्धांत स्थिर होने चाहिए वैसे करने में जैनदार्शनिको के समक्ष दिक्कतें थी। अतएव इसकी आंशिक उपेक्षाके अलावा और कोई रास्ता नहीं था। इतना ध्यान में रहे कि आचारांग में कहीं भी उसे देहपरिमाण नहीं कहा गया। वह मृत्यु के समय गमन स फालत सिद्धान्त ह । __अहिंसाकी चर्चा के प्रसंग में ये वाक्य हैं,-"तुमं सि नाम त चेव जं तन्वं ति मण्णसि.... अज्जावेतन्वं ति मण्णसि...” इत्यादि, आचा० १७० । इस विचार में भी उपनिषद के मन्तव्य की छाप स्पष्ट है । यदि आत्मा नाना है तो मारने वाला और मार खानेवाला भिन्न है किन्तु जहाँ आत्मा एकाही हो वहाँ हिंसक और हिंस्य एक हो होता है। जैन धर्म और दर्शन में नानाआत्मवाद स्थिर हुआ है अतएव आचारांग के ये वाक्य जैन दर्शन केअनुकल नहीं हैं । आचारांग में 'छज्जीवणिकाय" की चर्चा है जो सूचित करता है कि एकात्मवाद १. आचा० चू० पृ० १९९ । २. आचा० १, १२३, १६९, १७६। इन सूत्रों की चूर्णि भी देखें । ३. भगवई १. ७. ५७, उत्त० ३६. ५१, ५७, ६५ । ४. ओववाइय सुत्तगत अंतिम गाथाओं में गाथा नं ४ । ' ५. यहाँ के तात्त्विक आत्माके वर्णनमें से आ० कुन्दकुन्द ने 'न ह्रस्व, न दीर्घ' को हटा दिया है इस पर ध्यान दें-प्रवचनसार २. ८० । द आगे चलकर दार्शनिकों ने ज्ञान की अपेक्षा से और केवलि समुद्घात की अपेक्षा से आमाको व्यापक सिद्ध करने का प्रयत्न किया हो है। प्रज्ञापना सू० २१६८-३२,प्रवचनसार १.२३,२६, आगमयुगका जनदर्शन पृ०२४९ ।। ७. आचारांग ६२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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