Book Title: Jain Darshan ka Adikal
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 39
________________ जैनदर्शन का उद्भव और विकास इसके बाद आत्मा को पाँच महाभूतसे अतिरिक्त माननेवालों का मत है और उस मतके अनुसार आत्मा और लोक शाश्वत है । इन दोनों की उत्पत्ति होती नहीं । ये नियत हैं । और असत् की उत्पत्ति नहीं होतीं यह भी इस मतका सिद्धान्त है ( १५-१६ ) ।' इस मतको चूर्णि में अफलवाद में भी कहा है । इसका तात्पर्य यह है कि जब इस मत में नियति का स्वीकार हुआ अर्थात् ही पुरुषार्थवाद को अवकाश नहीं, कर्मवादका स्वीकार नहीं, तब फल कैसे होगा ? और यह भी ध्यानमें देना चाहिए कि इस मत को सत्कार्यवादी मानना उचित है । यही वाद सांख्यों ने भी माना । जैनदर्शन में तो सदसत्कार्यवाद का स्वीकार स्पष्टरूप से दार्शनिक काल में हुआ है । नियतिवाद स्वीकार में ही असत् की उत्पत्तिका अस्वीकार संनिहित है । अतएव नियतिवादी सत्कार्यवादी हो यह स्वाभाविक है । किन्तु इस मतके निराकरण से जैन तो फलवादी और पुरुषार्थवादी ही यह फलित होता है । बौद्धमत का भी निर्देश किया गया है और कहा है कि ये पांच रखते हैं और उन्हें क्षणिक मानते हैं । साथ ही यह भी निर्देश है कि इनके अन्य या अनन्य (आत्मा) तथा हेतु से या अहेतुक (उत्पत्ति) भी मान्य नहीं है हैं कि पृथ्वी, आप, तेज तथा वायु ये धातु हैं और इनकी 'रूप' संज्ञा है (१८) 13 इसमें जो 'अन्य - अनन्य न होने की बात कही गई है वह भ. बुद्ध के मत को पूर्वोक्त जो आत्मा को पांच भूतों से पृथक् नहीं मानते और जो पृथकू मानते है उन दोनोसे पृथकू करती है । अर्थात् ही बुद्धने पांच भूतों से निर्मित शरीर से जीव या आत्मा को अन्य और अनन्य कहने से इनकार किया है । यह उनके अव्याकृत प्रश्नों से स्पष्ट होता है । और अन्यत्र भी इसकी चर्चा बुद्धने की है ।" बौद्धोंने प्रतीत्यसमुत्पाद मानकर हेतु से या अहेतुक उत्पत्तिका निराकरण किया है यह विदित ही । इस के लिए विशेषरूप से नागार्जुन की विग्रहन्यावर्तनी और माध्यमिककारिका देखी जा सकती है । ३० बौद्ध मत के निराकरण से यह फलित होता है कि ऐकान्तिक क्षणिकवाद जैनसंमत नहीं । क्योंकि जीवका पुनर्जन्म स्पष्टरूपसे स्वीकृत है ( आचा० २-४ ) । और यह भी स्पष्ट किया है कि जीवकी आदि और अन्त देखा नहीं जाता । अर्थात् ही जीव नित्य है ( १२३ ) । शरीर और जीव की भेदाभेदको चर्चा भगवती में की गई है और शरीर से पारमार्थिक दृष्टि से जीव भिन्न हैं यह आचारांग ( १७६) में स्पष्ट किया गया हैं । जैन हेतुओं से उत्पत्ति मानते हैं यह भी स्पष्ट है क्यों कि नियति न मानकर पुरुषार्थ का स्वीकार किया गया है । पंच स्कन्ध के स्थान में जीव और अजीव की कल्पना आचारांग में ही स्पष्ट की गई है । जिसकी तुलना बौद्धों के नाम और रूपसे की जा सकती है । सांख्यों के प्रकृति - पुरुष से भी की जा सकती है । स्कन्ध की मान्यता मत में (शरीर से ) (१७) ये मानते १. असत् से उत्पत्ति होती है-इस मतका उल्लेख और निराकरण छान्दो० ६.२ में है । २. "इदाणिं आयच्छा फलवादि त्ति" - सूत्रकृ० चू० पृ० २८ । ३. देखें बौद्ध अवतरण के लिए सूत्रकृ० पृ० ३६० । ४. मज्झिमनिकाय चूलमालुंक्य सुत्त ६३ । इसकी विशेष चर्चा के लिए देखें न्याया० प्रस्तावना पृ० १४ । ५. देखें दीघनिकाय पृ० १३४- १३५ । सूत्र० में उद्धृत पाठके लिए देखें पृ० ३५९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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