Book Title: Jain Darshan ka Adikal
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: L D Indology Ahmedabad

Previous | Next

Page 42
________________ सूत्रकृतांग प्रथम श्रुतस्कंधमें जैनदर्शन -मोक्ष का मार्ग या सिद्धि की प्राप्ति के तीन कारण-ज्ञान, दर्शन और शील यहाँ स्पष्ट रूप से कहे गये हैं (३६८) जिसका अनुसरण सूत्रकृतांग में ही द्वितीय श्रुतस्कंध में सातवें अध्ययनमें ८६०वें सूत्रमें शोलके स्थान में चारित्र शब्द रख कर जो हुआ वही पारिमाषिक रूपसे आगे के सभी ग्रन्थों में अनुसृत है । यहाँ शील शब्द का प्रयोग जो है वह चारित्र को 'शील' शब्दसे ख्यात करने की प्राचीन प्रथा को लेकर है यह ध्यान में रखना जरूरी हैबौद्धो में शील, समाधि और प्रज्ञा ये क्रमिक कारण हैं। किन्तु जैनों में ज्ञान-दर्शन-चारित्र ये क्रमिक' कारण है इस और भी ध्यान देना जरूरी है । उपनिषदों में ज्ञान को ही महत्त्व दिया गया था, उसके स्थान में यहाँ चारित्र को महत्त्व मिला है। चौद्धौं ने भी शील को महत्त्व दिया, किन्तु क्रममें उसे प्रथम रखकर प्रज्ञाको उससे अधिक महत्त्व दिया वह एक प्रकार से शील की अपेक्षा ज्ञान को ही अधिक महत्त्व है-इसको सूचित करता है। किन्तु जैनों की दृष्टिमें चारित्र का विशेष महत्त्व है। इन कारणों से संपूर्ण कर्मों का विशोधन होता है अर्थात् क्षय होता है तब हो सिद्धि या मुक्ति प्राप्त होती है-यह भी स्पष्ट किया गया है। इसी दृष्टि से भ. महावीर को निर्वाणवादी में श्रेष्ठ बताया गया है (३७२)। सिद्धि के अन्य कारण जैसे कि आहार का त्याग, सीतोदकका सेवन. अग्निहोत्र (३९२)-इन का निराकरण किया गया है और कहा है कि यदि शीतोदकके सेवन से मुक्ति होती हो तो सदैव शीतोदकका सेवन करनेवाले मत्स्यादिकी सिद्धि हो जानी चाहिए (३९४-३९७) । इसी प्रकार अग्निहोत्र का भी निराकरण किया गया क्यों । इसमें निरपराध जीवों की हिंसा होती है (३९८-४०१)। सूत्रकृतांगमें आकर तत्त्वों की गणना किस प्रकार होने लगो यह भी देख लेना जरूरी जिससे उस सूची में किस प्रकार संकोच-विस्तार होकर व्यवस्था हुई यह जाना जा सकेगा। दार्शनिक मतोंका विभाजन क्रिया, अक्रिया, विनय और अज्ञान वादोंमें करके भी जैनमत को जैसा कि आचारांग (३) के प्रारंभमें कहा है क्रियावाद ही कहना होगा । अतएव यह स्पष्टीकरण आवश्यक था कि वास्तविक क्रियावादी कौन हो सकता है या क्रियावादके उपदेशके लिए क्या शर्त हो । इसका स्पष्टीकरण १२ वें अध्ययनमें किया गया है और वहाँ उस प्रसंगमें- आत्मा, लोक, गति और अनागति, शाश्वत और अशाश्वत, जन्म-मरण, उपपात और व्युत्क्रांति, आस्रव और संवर, दुःख और निर्जरा- इनको जो जानता है वही क्रियावादका उपदेश देने का अधिकारी है- यह स्पष्टीकरण किया गया है (५५४-५५५) । यह सूची उस समय तकके मान्य तत्वों की कही जा सकती है। जैन दर्शनका अनेकान्तवाद प्रसिद्ध है। उस अनेकान्तवादका पूर्व रूप है विभज्यवाद । सूत्रकृतांगमें यह कहा गया है कि- "विभज्जवायं च वियागरेज्जा' (६०१) अर्थात् वचनमें विभज्यवाद का आश्रय लेना चाहिए। यह विभज्यवाद भ० बुद्धके द्वारा भी उपदिष्ट है। मैंने अपनी पुस्तक “आगमयुग का जैनदर्शन" में (पृ० ५३ से) इसकी व्याख्या करने का तथा बुद्धके विभज्यवादके साथ तुलना करनेका प्रयत्न किया है। अतएव यहाँ उसका विस्तार करना अनावश्यक है । सारांश यह है कि किसी प्रश्नका एकान्त उत्तर न देकर विभाग करके उत्तर देना यह विभज्यवाद है। उसीमें से अनेकान्तवादका विकास हुआ है। सूत्रकृतांगमें इसकी १. तत्त्वार्थसूत्र में क्रम है दर्शन, ज्ञान, चारित्र-यह विचार के विकास की सूचना देता है। २, सूय० ३७८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50