Book Title: Jain Darshan ka Adikal Author(s): Dalsukh Malvania Publisher: L D Indology AhmedabadPage 43
________________ ३४ जैनदर्शन का उद्भव और विकास कोई व्यख्या नहीं मिलती, किन्तु भगवतीसूत्र के कई सूत्र ऐसे हैं जिनमे विभज्यवादका स्वरूप स्पष्ट होता है । विभज्यवाद में नयका विचार नहीं हुआ है । नयवाद के विकासको तब अवसर मिला जब तत्त्वकी विवेचना शुरू हुई । विभज्यवाद की जो प्रारंभिक चर्चा है उसमें जैसे कि ज्ञाना और अज्ञानो, घर्ती-अधर्मी आदि विभाग करके उत्तर दिया जाता है। किन्तु अनेकान्तवाद अपेक्षा या नयों को शोध की गई ओर क्रमशः उसी परंपराका विकास होकर अनेकान्तवाद स्थिर हुआ । सूत्रकृतांग द्वितीय श्रुतस्कंध सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कंध में प्रथम श्रुतस्कंधगत तत्त्वविवार में प्रगति देखी जाती है । द्वितीय स्कंध के पांचवें अध्ययन 'आयारसुय' में यह स्पष्टीकरण है कि लोक अनादि और अनन्त है ऐसा जानकर भी उसे केवल शाश्वत या अशाश्वत नहीं कहना चाहिए (७५५) । शास्ताका उच्छेद होगा और सभी प्राणी विसदृश हैं तथा सभी प्राणी सदैव ग्रन्थ में ही रहेंगे अर्थात् संसारमें हो सदैव भ्रमण करते रहेंगे- ऐसी मान्यता भी नहीं कहनी चाहिए (७५७) । इसी सिद्धान्त से फलित होने वाला दूसरा सिद्धान्त भी कहा कि जीव छोटा हो या बड़ा, उनकी हिंसासे होनेवाला वैर सदृश हो है या असदृश हो है ऐसा भी नहीं कहना चाहिए ( ७५९)। इससे जीवकी शरीरपरिमाण की मान्यता फलित होती है, किन्तु स्पष्ट शब्दों में उसे कहा नहीं गया है । यथाकाम्य ( आहाकम्प ) साधु के लिए बा-यदि उपयोग में लेता है तो अवश्य कर्मबन्ध होता है या नहीं होता है यह कहना भी नहीं चाहिए ( ७६१) । इस प्रकार औदारिक आहार और कार्मण आहारमें अपनी वीर्यशक्ति है या नहीं है ऐसा भी एकान्तरूप से नहीं कहना चाहिए (७६३) । ये सभी अवचनीय हैं - अवक्तव्य हैं । किन्तु इसके बाद श्रद्धा के दर्शन के विषयों की चर्चा जो की गई है उसमें उक्त प्रथम श्रुतस्कंधगत सूचीको नया रूप - संशोधित रूप दिया गया है । और उन्हें 'अस्ति' कोटि में रखा गया है । वहाँ जिन तत्त्वों को 'अस्ति' कहना और 'नास्ति' नहीं कहना यह कहकर गिनाया है वे हैं - लोक, अलोक, जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, बन्ध, मोक्ष, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, वेदना, निर्जंग, क्रिया, अक्रिया, क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेम, द्वेष, चतुरंत संसार, देव, देवो, सिद्धि, असिद्धि, सिद्धिनिजस्थान है, साधु, असाधु, कल्याण, और पाप (७६५ - ७८१) । यहाँ यह स्पष्ट करना जरूरी है कि यहाँ जो धर्म-अधर्म गिनाये हैं उनका तात्पर्य धर्माfears और अस्तिकाय नहीं है यह वात सभी टीकाओं को मान्य है। स्पष्ट है कि यह सूची आगे चलकर जो सात या नव तत्वकी सूची स्वीकृत हुई है उसका पूर्वरूप है । अतएव हम यह कह सकते हैं कि यह तत्त्वों या पदार्थों की सूची व्यवस्थित करने का प्रयत्न सर्वप्रथम हुआ है । उसके बाद क्रपसे पंचास्तिकाय और षद्रव्य की सूची बनी है । यह पदार्थोंकी सूची विश्वरूपकी व्याख्या के लिए नहीं किन्तु मोक्षमार्गको व्याख्याके अनुकूल है । विश्वव्याख्या के लिए तो पंचास्तिकाय - षड्द्रव्यकी सूची बनी है । पंचास्तिकाय और षद्रव्यकी कल्पना नव तत्त्व या सात तत्त्व के बाद ही हुई है उसका प्रमाण हमें भगवती सूत्र से मिल जाता है । वहाँ प्रश्न किया गया है कि लोकान्तमें खड़ा रह कर देव अलोक में अपना हाथ हिला सकता है या नहीं ? उत्तर दिया गया कि नहीं हिला सकता । और उसका कारण बताया कि "जीवाणं आहारावचिया पोगला, बोंदिचिया पोग्गला, कलेवरचिया पोगला, पोग्गलमेव पन जीवाण य अजीवाण य गइपरियाए आहिज्जइ । अलोए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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