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सूत्रकृतांग द्वितीय श्रुतस्कंध
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देखा जा सकता है । उन्होंने एक एक दर्शन को लेकर वह विरोध किस प्रकार है - इसे दिखा कर
विरोध का निरास केवल अनेकान्तवाद मानने पर ही हो पकता है-इस बात की पुष्टि की। इस प्रकार अनेकान्तवाद को भारतीय दर्शनक्षेत्र में एक समन्वय-दर्शन के रूप में उपस्थित किया । भारतीयदर्शनों में प्रमाणचर्चा चल रही थी । उसका भी अध्ययन करके आचार्य अकलंक ने जैनप्रमाणमीमांसाको प्रतिष्ठित किया । यद्यपि उनसे भी पूर्वकाल में सिद्धसेनने प्रमाण चर्चा का प्रारंभ किया था किन्तु वह मात्र प्रारंभ ही था । समग्रभाव से भारतीय दर्शनों की प्रमाणचर्चा का आकलन करके जैनप्रमाणचर्चा की नये रूप में प्रतिष्ठा तो अकलंक की ही देन है । इन आचार्यो के बाद भी हरिभद्र, विद्यानन्द, माणिक्यनंदी, प्रभावन्द्र, वादीदेव, आदि ने जैनप्रमाण - प्रमेय - अनेकान्तवाद के विषय में अपने अपने समय में उठे हुए नये नये प्रश्नों का समाधान करके जैन तत्त्वविद्याको आगे बढ़ाया और प्रस्थापित किया ।
अन्त में उपाध्याय यशोविजय ने हो नव्यन्यायका आश्रय लेकर जैनदर्शनकी उस क्षेत्र में भी प्रतिष्ठा को । इस प्रकार जैन दर्शन को अद्यतन बनाने का श्रेय उप० यशोविजय को दिया जा सकता है ।
मैंने बाद के आगमों में प्रमाण- प्रमेय- अनेकान्तवाद का क्या रूप है, उसका विस्तार से मेरे 'आगमयुगका जैनदर्शन' ग्रन्थ में विवेचन किया ही है ओर दर्शनकालके ग्रन्थों में जो जैन दर्शन हमारे सामने आता है उसका विस्तृत विवेचन पं. महेन्द्रकुमार के ग्रन्थ 'जैनदर्शन' से भली-भांति जाना जा सकता है अतएव मैं इस व्याख्यान में उसका विवरण देना नहीं चाहता । किन्तु समय और अवसर मिला तो जैनदर्शन के क्रमिक विकास का इतिहास लिखने की भावना है । पता नहीं वह कब पूरी होगी ।'
१ डॉ. ए. एन्. उपाध्ये की स्मृति में ता० ८.१०.७७ को शिवाजी विश्वविद्यालय में दिया गया द्वितीय व्याख्यान | इसके मुद्रण में देरी होने के कारण यत्र तत्र वृद्धिका अवसर व्याख्याताने लिया है।
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