Book Title: Jain Darshan ka Adikal
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 35
________________ जैनदर्शन का उद्भव और विकास नहीं । आकाश को भी अन्य मतवालों ने महाभूत में शामिल किया है किन्तु कहीं भी उसकी 'काय' संज्ञा देखी नहीं जाती। जीव, आत्मा, जीवनिकाय, चित्तमंत ऐसे शब्दों का प्रयोग चेतन तत्त्व के लिए स्वीकृत है और अचेतन तत्त्व के लिए अचेतन, अचित्तमंत ऐसे शब्दों का प्रयोग देखा जाता है किन्तु 'अजीव' यह शब्द देखा नहीं जाता । 'पुद्गल' शब्द का भी प्रयोग रूपी या मूर्त पदार्थ के लिए अभी नहीं हुआ है। आचारांग में उपलब्ध जैनदर्शन की चर्चा करने के बाद यह देखना जरूरी है कि पालिपिटक में जो जैसमन्तव्यका का निर्देश है वह कैसा है क्यों कि जैनमन्तव्यों का अन्यत्र प्राचीनतम उल्लेख वही है। पालिपिटक में निग्गण्ठ नाटपुत्त के मत का जो उल्लेख है वह आचारपरक है ।' उससे भी यह सिद्ध होता है कि प्राथमिक भूमिका में जैनधर्म में भाचार विषयक मन्तव्य विशेष रूप से निश्चित हए थे । सूत्रकृतांग -प्रथम श्रुतस्कंध में जैनदर्शन। आचारांग के दर्शन का विकास सूत्रकृतांग में स्पष्टरूप से मिलता है। आचारांग के कई विषय ऐसे हैं जिनकी सूचना मात्र आचारांग में थी उसका विवरण सूत्रकृतांग में देखा जाता है। अतएव यहाँ सूत्रकृतांग में जो दार्शनिक विकास देखा जाता है उसका निर्देश जरूरी है। यहाँ भो सूत्रकृतांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध हो अभिप्रेत है जो उसके द्वितीय श्रुतस्कंध से प्राचीन है । अतएव आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की चर्चा के बाद उसी की चर्चा की जाय यह उचित है । सूत्रकृतांग में प्रथम अध्ययन में सर्वप्रथम अन्य तीर्थकों के मत की समीक्षा की गई है। समीक्षा तो है किन्तु उस मत के स्थान में जनमत क्या है वह स्पष्ट नहीं कहा । अतएव उन समीक्षित मन्तव्यों के आधार पर जैन मन्तव्य फलित करना ही हमारे लिए एकमात्र मार्ग रह जाता है । सूत्रकृतांग (७) में पृथ्वी, आप, तेज, वायु, और आकाश को पाँच महाभूत मानने वाले के मत का निर्देश है । इस मत के अनुसार इन पांच भूतों से एक देही (आत्मा) का निर्माण होता है और उन पाँच के विनाश होने पर देही का भी विनाश हो जाता है (८) इस मत की तुलना दीघनिकायगत (पृ०४८) अजित केसकम्बल के मत से की जा सकती है । वह पुरुष अर्थात् आत्मा को चार महाभूतों से उत्पन्न मानता है । चार महाभूत हैपृथ्वी, आप, तेज और वायु । इसके अतिरिक्त आकाश भी उसने माना है जिसमें मृत्यु होने पर इन्द्रियों का समावेश हो जाता है- 'आकासं इन्द्रियाणि संकमन्ति'-अर्थात् वह पंचभूतवादी है । यह भी ध्यान देने की बात है कि उसके मतानुसार चार भूतों की 'काय'" संज्ञा भी मान्य है, जैसे पृथ्वीकाय आदि । 'आकाश' की 'काय' संज्ञा नहीं है। वह अक्रियावादी है, जो किये गये कर्म के ।वपाक को नहीं मानता और नहीं परलोक को"। उसने अपने मत के विपरीत वाद को 'अथकवाद' कहा है उससे यह फलित होता है कि वह 'नस्थिकवादी' है । अर्थात् ही आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व वह नहीं मानता ओर न परलोक को । १. दीघनिकाय पृ० ५० । विशेष विवरण के लिए देखें-डा० नगराजजी, आगम और पिटक: एक अनुशीलन पृ०५३७-६१३ २. सूत्रकृ०नि०गा० २७ । ३. 'चातुमहाभूतिको अयं पुरिसो'-दीघ००४८ । ४. उनके मतानुसार मृत्यु होने पर 'पठवी पठविकायं...आपो आपोकायं, तेजो तेजो-कायं.... घायो वायुकार्य अनुपेति अनुपगच्छति' दीघ• पृ०४८ । ५. 'नस्थि सुकत-दुक्कटानं कम्मानं पलं विपाको, नत्थि अयं लोको, नस्थि परलोको' दीघ०पृ०४८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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