Book Title: Jain Darshan ka Adikal Author(s): Dalsukh Malvania Publisher: L D Indology AhmedabadPage 36
________________ सूत्रकृतांग प्रथम श्रुतस्कंधमें जैनदर्शन २७ अजित के. समान ही दूसरा मत पूरण कस्सप का है जो पाप-पुण्य नहीं मानता और अक्रियावादी है-दीघ० पृ० ४५ । पकुध कच्चायन के मतानुसार पठविकायो, आपो० तेजो० वायो० सुखे दुक्खे जीव सत्तमे -ये 'काय' सात हैं जो शाश्वत हैं और परस्पर सुखदुःख का कारण नहीं बनते । कोई किसी की हिंसा नहीं करता, कोई किसी के प्राण का व्यपरोपण नहीं करता, किसी के मस्तक का कोई तीक्ष्ण शस्त्र से जब घात करता है तब वह किसी के जीवन का घात नहीं करता, केवल इन सात कायों के बीच शस्त्र का पात करता है। कोई किसी का घातक, हिंसक नहीं है । कोई किसी का विज्ञाता या विज्ञापक भी नहीं - दीघ० पृ. ४९। यह भी अक्रियावादी ही कहा जायगा । पृथ्वी आदि को 'भूत' न कह कर 'काय' संज्ञा सूत्रकृतांग में है । और यह भी तात्पर्य है कि वे सचित्त हैं-सजीव हैं । अन्य मत में जैसा कि हमने देखा चार या सात 'काय' है। जब कि सूत्रकृतांग में 'काय' छह है यह व्यवस्था हुई है और वे षड्जीवनिकाय नाम से जाने जायें यह भी स्पष्ट है- किन्तु गिनती में छह का कथन आचारांग (६२) का अनुसरण ही नहीं, स्पष्टीकरण भी मानना चाहिए । क्यों कि आचारांग में प्रथम अध्ययन में 'तसकाय' (५०) और 'अगणि काय' (२११, २१२) को 'काय' संज्ञा दी है । शेष का नामोल्लेख है किन्तु उन नामों के साथ 'काय' संज्ञा का प्रयोग नहीं । इसका अर्थ यह तो नहीं कि वे 'काय' रूप से अनभिमत थे। क्योंकि आगे चलकर प्रथम अध्ययन के अन्त में 'छज्जीवणिकाय' (६२) शब्द का प्रयोग किया गया है । और आचा० २६५ में अन्य आप और वायु को भी काय कहा ही है। केवल पृथ्वी और वनस्पति के साथ 'काय' शब्द का प्रयोग नहीं मिलता। फर भी अभिप्रेत है ऐसा माना जा सकता है । सूत्रकृतांग में सष्ट रूप से गिनती करके छहों बताए हैं- सूत्रकृतांग ३८१-८२ में पृथ्वी, आप, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस की गिनती की गई है । यहाँ तृण-वृक्ष-बीज से वनस्पति अभिप्रेत है और त्रस प्राणों में अंडज, जरायुज, संस्वेदज और रसज का उल्लेख । सूत्रकृतांग (४४४-४४५) में तो स्पष्टरूप से छह कार्यों का निर्देश है-किन्तु त्रस में 'पोत' भेद का भी निर्देश किया गया है, जो पूर्व में निर्दिष्ट नहीं था । और सूत्रकृतांग-५०३-५०४ में सभी छहों को गिनाकर अंत में कहा है 'इत्ताव ताव जीवकाए नावरे विज्जती काए' (५०४)। स्पष्ट है कि काय संज्ञा छह जीवकाय की ही है । फलित यह भी होता है अभी 'अत्थिकाय' संज्ञा व्यवस्थित नहीं हुई और धर्म-अधर्म-पुद्गल-आकाश का कायरूप से स्वीकार भी नहीं हुआ । १. ध्यान देना जरूरी है कि सातों को काय माना फिर भी गिनती के समय पृथ्वी आदि चार के साथ ही 'काय' शब्द जोड़ा है। २. यहाँ तत्त्वार्थ के "जराय्वण्डोत जानां गर्भः । नारकदेवानां उपपातः ।' २.३४.३५ देखें। और 'त्रम' जीवों के व्यवस्थित भेदों के लिए देखें आचा० नि० गा. १५३-१६३ । तत्त्वार्थ २ १४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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