Book Title: Jain Darshan ka Adikal Author(s): Dalsukh Malvania Publisher: L D Indology AhmedabadPage 32
________________ आचारांग प्रथम श्रुतस्कंधमें दर्शनका रूप "आयारो अंगाणं पढम अंग दुवालसण्हं पि । इत्थ य मोक्खोवाओ एस य सारो पवयणस्स ॥” आचा. नि० ९। इससे स्पष्ट है कि 'आचार' ही प्रवचन का सार है और वहीं 'मोक्षोपाय' है । क्यों कि आचार से ही मुक्ति-मोक्ष है । अतएव देखना यह है कि आचारांग में मोक्ष की कल्पना कैसी की गई है। पूर्व में उद्धृत आचा०२०० में सिद्धि शब्द का प्रयोग है' अतएव यह विदित होता है कि तीर्थिकों में सिद्धि विषयक कल्पनाएँ थी। किन्तु जैनों ने अपने ढंग से इस विषय में क्या माना यह उस सूत्र से ज्ञात नहीं होता । अतएव आचारांग में सिद्धि के विषय में अन्यत्र क्या कहा गया यह जानना जरूरी है । सिद्धि (२००), निर्वाण (१९६), निरोध (२४७), मुक्त(९९, १६१, १८८), मुक्ति (१७७), मोक्ष (७३, १०४, १५५, १७८), परिनिर्वाण (४९) परिनिवृत (१९७), पारग (२३०) पारगामि (७१), पारंगम (१९८) जैसे शब्द मोक्षसूचक हैं, इसमें तो संदेह नहीं किन्तु मोक्ष का स्वरूप कैसा और उसके उपाय क्या इसका विवरण उन शब्दों के प्रयोग के सन्दर्भ से ही ज्ञात हो सकता है। सामान्य तौर पर यह तो ज्ञात हो ही सकता है कि आचार अर्थात् जिसका निरूपण आचारांग में है-वह मोक्ष का उपाय है जैसा कि नियुक्ति आदि में कहा गया है। किन्तु विशेष रूप से उपाय क्या अभिमत है- इसका जानना जरूरी है। ___ आचारांग (९१, १०३) में कहा है, "एस वीरे* पसंसिए जे बद्धे पडिमोयए' । स्पष्ट है कि मुक्ति या मोक्ष का तात्पर्य बन्धन से मुक्ति पाना-यह है । अतएव जो दूसरों को मुक्ति दिलाता है वह वीर प्रशंसाके पात्र हैं। चूर्णि (पृ.८४) में स्पष्टीकरण है कि बंध क्या है"दवबंधो पुत्रकलत्रमित्रहिरण्यादीणि, भावे विसयकमायादी । जो एएणं बंधेण अप्पाणं मोएत्ता परा मोएति" स्पष्ट है कि पुत्रादिरूप बाह्य और विषय-कषायरूप आंतरिक बन्धनों से मुक्ति पाना मोक्ष है। मोक्ष की यह कल्पना साधारण है- इसमें जैनसंमत मोक्ष की कोई नई परिभाषा नहीं है। किन्तु अन्यत्र चूर्णिमें ही इसी की व्याख्या हैं-"आठ कर्मों से जो मुक्ति दिलावे वह वीर है" (पृ०९९) । यह जैन परिभाषा है। आचारांग (१०४)में यह वाक्य भी ध्यान देने योग्य है, जहाँ यह भी स्पष्ट है कि मेधावी पुरूष अपने बन्धा से मोक्ष का अन्वेषो है -“से मेधावी जे अणुग्धातणस्स खेतणो जे य' बंधामोनमण्णेसी। किन्तु उसके बाद यह वाक्य "कुसले पुण णो व द्धे णो मुक्के” थोडा विचित्र है। क्या 'कुशल' से यहाँ वैदिकों के ईश्वर या ब्रह्म १. आचा० द्वि० श्रुतस्कंध में सिद्धि के पर्याय हैं-"सिज्झिस्संति, बुज्झिस्संति, मच्चिस्मति. परिणिव्वाइस्संति, सम्वदुक्खाणं अंत करिस्त ति” ७४५ । और ८०२-८०४ में भी 'अन्तकृत' -सिद्ध के लक्षण देखें- जहाँ निरालम्बन और अप्रतिष्ठित, बन्धनहीन तथा कलंकलीभावप्रपञ्च से मुक्त कहा है। २ "विदारयति तत्कर्म तपसा च विराजते । तपोवीर्येण युक्तश्च, वीरो वीरेण दर्शितः ॥" आचा • च्० पृ०९३१ । ३.और भी आचारांग १५५ । ४. देखें "न बद्धोऽस्मि न मुक्तोऽस्मि ब्रह्मवाऽस्मि" अन्नपूर्णोपनिषद् ५.६८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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