Book Title: Jain Darshan ka Adikal Author(s): Dalsukh Malvania Publisher: L D Indology AhmedabadPage 27
________________ १८ जैनदर्शन का उद्भव और विकास “अदु थावरा य तसत्ताए तसजीवा य थावरत्ताए अदु वा सव्वजोणिया सत्ता कम्मुणा कप्पिया पुढो बाला ॥" आचा० २६७ 'संसारमें जन्म और मृत्यु की परंपरा है और जीव नाना दिशाओं से आकर जन्म धारण करता है और मृत्यु के बाद नाना दिशाओं में जाता है। कम के कारण ही जीव का परिभ्रमण होता है अतएव कर्म समारंभ का परित्याग करना जरूरी है इस बातको जो मानता है वही आत्मवादी है, लोकवादी है, कर्मवादी है और क्रियावादी है' यह स्पष्टीकरण आचारांग के प्रारंभ में ही किया गया है। इस स्पष्टीकरणके आधार परसे ही लोक, पुनर्जन्म, संसार, मोक्ष', जीवकी नाना देशोंमें गति होने से उसकी व्यापकता का अभाव अर्थात ही देहपरिमाण आत्मा. क्रियाकर्म का सिद्धान्त ये मन्तव्य स्थिर करने में सुविधा हुई है। समग्र आचारांग में अनेक बार 'लोक' शब्द प्रयुक्त हुआ है, किन्तु प्रायः उसका अर्थ जीवसमूह ही लिया गया है। किन्तु आगे चलकर इस लोक की व्याख्या प्रधानरूप से क्षे गई हैं। कर्मरहित आत्मा की स्थिति कैसी हो इसका प्रतिपादन इन शब्दों में है-"सव्वे सरा नियटृति, तक्का जत्थ ण विज्जति, मती तत्थ ण गाहिया, औए अप्पतिट्ठाणस्स खेत्तण्णे । से ण दीहे, ण हस्से, ण वट्टे, ण तसे, ण चतुरंसे, ण परिमंडले, ण किण्हे, ण णीले, ण लोहिते, ण हालिद्दे, ण सुक्किले, ण सुरभिगंधे, ण दुरभिगंधे, ण तित्ते, ण कडुए, ण कसाए, ण अंबिले, ण महुरे. ण कक्खडे, ण मउए, ण गुरुए, ण लहुए,ण सीए, ण उण्हे, ण गिद्ध, ण लुम्खे, ण काऊ, ण रुहे, ण संगे, ण इत्थी, ण पुरिसे, ण अण्णहा, परिणे सण्णे उवमा विज्जति, अख्वी सत्ता, अपयस्स पयं णस्थि । से ण सद्दे, ण रूवे, ण गंधे, ण रसे, ण फासे, इच्चेतावन्ति ।"-आचा० १७६ । यह वर्णन उपनिषदों के ब्रह्मकी याद दिलाता है जहां नेति नेति करके उसकी पहचान की गई है । किन्तु यहाँ एक और बात की ओर भी ध्यान देना जरूरी है । ये दीर्घ, ह्रस्व, रूप, रस आदि जिनका निषेध किया गया है वे अचेतन या अजीव अर्थात् जड़ पदार्थ के लक्षण हैं । किन्तु समग्र आचारांग में रूप-रसादि युक्त जो पदार्थ है वह पुद्गल है ऐसा कहीं भी नहीं कहा गया । पुद्गल शब्द का हो प्रपोग कहीं नहीं हुआ है। एक और बात की ओर भी ध्यान देना जरूरी हैं। प्रस्तुत सूत्र १७६ से जोव के अतिरिक्त अजीव-अचित्त पदार्थ की जानकारी फलित होता है वह इस प्रकार-अर्थात् ही अचित्त जो है वह 'शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श है; और उनके भेद भी गिना दिये गये हैं, वे हैं रूके कृष्ण, नील, लोहित, हारिद्र और शुक्ल; गन्धके सुरभि और दुरभिगन्ध; रसके -तिक्त, कटुक, कषाय, अम्ल • और मधुर; स्पर्श के-कर्कश, १ आचारांग को नियुक्ति में मोक्षोपाय बतानेवाला ग्रन्थ कहा गया है-आचा० नि० ९। २. 'अ लोए' आचा० १० । ३. कहीं कहीं लोक अर्थात् क्षेत्रलोक भी अभिप्रेत है- आचा० १३६ । ४. “यतो वाचो निवर्तन्ते" इत्यादि-उपनिषद्वाक्य-महाकोष । ५ आचा० पृ०४०६ में देखें इस पर टिप्पण । ६. यहाँ ध्यान देना चाहिए कि यह भाषा बौद्ध में भी प्रयुक्त है जहाँ 'रूपवत' न कह कर 'रूप' कहा जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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